बसंत और कोयल
केदार शर्मा
सूरिया परिवार अपने नाती-रिश्तेदारों के साथ दस साल पहले बिहार के शिवहर ज़िले से आकर राजस्थान के इस गांव में बसा था। वहां इनका धंधा लकड़ी से कोयला बनाकर बेचना था। इसीलिए अपनी बेटी का नाम भी इन्होंने कोयली ही रखा। हालांकि प्यार से उसे कोयल भी कहते थे। बेरोजगारी से त्रस्त इनके कई रिश्तेदार पहले से ही यहां और शहर के आसपास के गांवों में रह रहे थे। बाबू का परिवार यहां आकर भी विलायती बबूल की जड़ें खोदकर और लकड़ी काटकर उसका कोयला बनाकर बेचने लगा। कोरोना की त्रासदी ने बाबू को अपनी चपेट में ले लिया। उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नी झीतरी और बेटी कोयली दोनों अनाथ से हो गए। बाबू ने जो कुछ पैसे छोड़े थे, धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे थे। झीतरी का एक देवर रामूड़ा का घर भी इसी गांव में थोड़ी दूरी पर ही था। जो पत्नी और बच्चों के साथ वहीं रह रहा था। कुछ जाति-बिरादरी के और भी घर थे। इन सूरिया लोगों की बस्ती गांव के बाहर अलग-थलग ही थी। इन सब लोगों के विश्वास पर ही बाबू सूरिया इस गांव में आकर बसा था।
जनवरी की गलन भरी सर्दी में गठरी-सी बनी झीतरी और कोयली दीवार का सहारा लगाकर उनमनी-सी बैठी थीं। बादल छाए होने के कारण धूप निकलने के आसार नहीं थे। बाहर गहरी धुंध थी। तभी बाहर रामूड़ा की आवाज सुनाई पड़ी—‘क्या कर रही हो भाभी, ये तुम्हारी बकरियां तो गांव की और भागी जा रही हैं।’ झीतरी ने कोयली को झंझोड़ा, ‘अरी भाग कोयल! पता नहीं चला कब बकरियां इतनी दूर चली गईं।’
बकरियों को मोड़कर लाने के लिए कोयली बाहर चली गयी। इधर देवर भाभी के बीच बातों का सिलसिला चला तो झीतरी ने कोयली के विवाह की चिंता जताई। बोली, ‘कुछ करो देवरजी, जमाना खराब है। छोरी सयानी हो गई है, कोई खाता-कमाता लड़का नजर में हो तो बताना। जाणे कद रामजी उठा ले, अब जीवन का भरोसा नहीं है। लकडि़यां काटकर कोयला बनाने का धंधा भी मंदा पड़ता जा रहा है। न तो इतनी हाड़तोड़ मेहनत हो पाती है और न ही सही कीमत लगाने वाले ग्राहक तलाश पाते है। इस देस में तो विलायती बबूलों पर भी किसी न किसी का कब्जा है। कोयली के बापू तो सब कर लेते थे। पर मुझसे अब यह सब नहीं होता।’
रामूड़ा तो इसी मौके की तलाश में ही था, बोला—‘छोरो तो म्हारी नजर में है, दीखण में सुंदर बांकों जवान लागे है, रोज पांच सौ को नोट कमाकर ल्याव है। अगर तू कोयली को ब्याह उठे कर दे तो वो भी अपनी बेटी को रिश्तोम म्हारा जीतू के सागे कर सके है।’ झीतरी क्या कहती? उसने इतना ही कहा, ‘म्हारी कोयली ने दु:ख कोनी होणू चावै।’ पर रामूड़ा ने स्पष्ट कर दिया कि ‘देख भाभी, कोई किसी के पेट में घुसकर नहीं निकला है। सुख-दु:ख तो रामजी के हाथ में है।’
झीतरी ने अपने पास जो भी रकम थी, अपने देवर के हाथ में रख दी, बोली—‘मैं तो बूढ़ी और असहाय औरत हूं, कोयली रा ब्याह रो सारो इंतजाम थाने ही करणों है। थे जाणो थाकों काम जाणे।’ झीतरी से हरी झंडी मिलते ही रामूड़ा के पंख लग गये। अपने बेटे के विवाह के बारे में वह पूरी तरह से निराश हो चुका था। अब झीतरी के माध्यम से उसे वह उम्मीद पूरी होती नजर आ रही थी।
नए मेहमानों का आवागमन बढ़ गया था। आनन-फानन में दोनों के विवाह तय हो गये। पहले रामूड़ा के बेटे की बारात जाएगी और वह बहू लेकर आएगा, उसके बाद कोयली को विदा किया जायेगा।
थोड़ा धमक-धमोड़ा हुआ। बाजे बजने लगे। बस्ती चहल-पहल से भर गयी। नृत्य के अनुरागियों ने अपनी कसर नृत्य कर पूरी की। पहले रामूड़ा बारात लेकर गया और दुल्हन लेकर आ गया फिर कोयली की विदाई की तैयारियां शुरू हो गयी। कोयली अपनी मां से गले मिलकर खूब रोई। कोयली की देह तो ससुराल चली आई थी पर मानो उसके प्राण तो उसकी बूढ़ी मां में ही अटके हुए थे। कोयली समझ नहीं पा रही थी कि उसके साथ ही यह सब क्यों हो रहा है? उसकी हमउम्र कई लड़कियां दसवीं-ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही थीं।
पर भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था। उधर जिस लड़के भूरिया के साथ कोयली का रिश्ता तय किया गया था, उसके पिता वर्षों पहले ही निराकार में लीन हो चुके थे। घर में बूढ़ी मां थी और एक बहिन थी—भूरी, जिसका रिश्ता रामूड़ा के लड़के के साथ तय हुआ था। उसके पीछे शर्त यही थी कि कोयली का रिश्ता और भूरिया के साथ करना होगा। यह बात कोयली को बाद में पता चली कि लड़के में शराब पीने की लत थी। इसी कारण से उसका कहीं रिश्ता नहीं हो रहा था। यह बात जान-बूझकर छिपाई गयी थी।
भूरिया सीवेज लाइन बिछाने वाले ठेकेदार के अधीन मजदूरी करता था, पर आधी कमाई शराब और जुए में बर्बाद कर देता था। कोयली ने अपनी बूढ़ी सास के सहयोग से उसे सही राह पर लाने की भरपूर कोशिश की। हालांकि, उसका शराब पीना बहुत कुछ छूट चुका था, पर चोरी-छिपे पीना नहीं छूटा। कई तरह की बीमारियों ने उसे घेर लिया था। चिकित्सकों ने लीवर क्षतिग्रस्त होने की बात कहकर चेतावनी दे दी थी।
जिंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी। मई के उमस भरे दिन थे। दोपहरी ढलते ही कोयली घर से बाहर निकली तो कुछ दूर पर उसे शोरगुल सुनाई पड़ा। उधर से भूरिया की आवाज आ रही थी। बच्चे युवा और बुजुर्ग उसे घेर कर खड़े थे। कोयली के कदम उधर मुड़ गए। भूरिया शराब के नशे में जोर-जोर से कह रहा था कि मुझे गांव के महंतजी ने बताया है कि तुम सूरिया यानी सूर्यवंशी हो, भगवान राम के वंशज हो। तुम्हें शराब पीना शोभा नहीं देता है, इसलिए आज मैं आखिरी बार शराब पी रहा हूं। आज के बाद भगवान श्रीराम की कसम मैं कभी भी शराब नहीं पीऊंगा। लोग हंस रहे थे और मजे ले रहे थे। कोयली उसे पकड़कर घर ले गई गई। आज उसने कुछ ज्यादा ही पी ली थी। रात को वह बेसुध होकर पड़ा था और उसी हालत में सुबह उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।
जीवन में अचानक आए इस दु:ख भरे परिवर्तन से एक बार फिर कोयली हक्की-बक्की रह गई। उसकी सास दहाड़े मारकर जोरजोर से रो रही थी। पर कोयली न रो रही थी और न ही कुछ बोल रही रही थी। बस गंभीर भाव से शोकमग्न लोगों का देखे जा रही थी। औरतें काना-फूसी कर रही थीं, ‘कहीं पागल न हो जाए। मुझे तो लगता है पागल हो गयी है।’
पर बीच-बीच में कोयली जोर से चिल्ला उठती—‘मुझे मेरी मां के पास ले चलो।’ लोगों के कहने पर अधमरी-सी हालत में रामूड़ा कोयली को बाइक पर बिठाकर उसकी मां के पास ले आया। कोयली की रुलाई अचानक फूट पड़ी। बहुत देर तक दोनों मां-बेटी गले लगकर रोती रहीं। फिर अचानक कोयली सिर हिला-हिलाकर विचित्र तरह से रोने लगी। आस-पास की औरतों ने आकर किसी तरह से उसे संभाला। कुछ ने कहा, ‘ऊपर की बीमारी का असर है।’ किसी ने कहा, ‘शायद इसका पति ही इसके शरीर में आने लगा है। किसी ने बताया कि पास के जंगल में भैरव बाबा का स्थान है, प्रेत-बाधा के कई रोगी वहां ठीक होते हैं।’ सो अपनी बकरियों को रामूड़ा को संभलाकर घर की चाबी उसे ही देकर दोनों मां-बेटी पैदल चलकर भैरूधाम पहुंची।
भैरूधाम सुनसान जंगल में पांच बीघा जमीन में फैला हुआ उजाड़-सा स्थान था। पांच बीघा जमीन खेती के लिए अलग थी। एक ऊंचे चबूतरे पर एक प्रस्तरशिला पर सिंदूर लगा था। सामने दोनों ओर त्रिशूल गढ़े थे। बीच में हवन कुण्ड में अग्नि जल रही थी।
शाम को प्रसाद और आरती के उपरांत भोपा ने उन दोनों मां-बेटी को बुलवाया। झीतरी ने भोपा को कोयली के साथ घटी घटनाओं के बारे में विस्तार से बताया और इस प्रेत-बाधा को किसी तरह दूर करने की विनती की। सारा वृत्तांत जानने के उपरांत भोपा ने कहा, ‘बेटा, मैं जान गया हूं कि तुझे किसी भी तरह की प्रेतबाधा नहीं है। दरअसल, तू हिम्मत हार गयी है। फिर से उठकर खड़े होने के अतिरिक्त और कोई इलाज नहीं है। असली झाड़ा और मंत्र तो यही है- ‘बीती ताहि बिसार दे,आगे की सुध लेय।’
भोपा ने झीतरी से कहा, ‘देखो तुम मेरी बहिन जैसी हो और यह मेरी बेटी जैसी। मेरे एक ही बेटा है-बसंत, उसकी मां, जब वह पांच साल का था, तब चल बसी थी। बसंत ने यूं तो ऊंची पढ़ाई पढ़कर खेती में डॉक्टर की डिग्री ले रखी है, पर नौकरी नहीं करके वह समाज सेवा करना चाहता है। पास ही गौशाला है जिसके गोबर और दूध और इस जमीन की उपज से ही इतनी आमदनी हो जाती है कि ‘मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए।’
देखो, मेरा कहना मानो तो तुम दोनों मां-बेटी यहीं रहो। बिहार के लोग वैसे भी बहुत मेहनती होते हैं, इसलिए मेरे मन में उनके प्रति आदर-भाव रहता है। बसंत के पास एक पूरी योजना है, तुम तो बस जैसा वह कहे करती जाओ।’
आखिर झीतरी ने कोयली को समझाया–‘बेटा, भैरव बाबा ने हमारी डोर खींची है। खोने को कुछ नहीं है सिवाय उस फूस के छप्पर के। यहां आसरा भी है, रोटी भी है और काम भी है। और क्या चाहिए अपने को।’
अपनी नियति मानकर दोनों मां-बेटी जी-जान से काम में जुट गई। बसंत के पास अपना ट्रैक्टर-ट्रॉली थी, गड्ढे खोदने की मशीन थी, परिसर में पानी का ट्यूबवेल था। बसंत की देखरेख में नर्सरी तैयार हुई। गड्ढे खोदे गए, पौधे लगाए गए। संध्या आरती के बाद भैरवजी की प्रतिमा के सम्मुख रोज भजन गाए जाते। कोयली की कंठ मधुर थी। शीघ्र ही वह वाद्ययंत्रों के साथ सुर मिलाकर गाने में पारंगत हो गई। गायन कला में तो वहां आसपास के गांवों से आने वाले बहुत से लोग सिद्धहस्त थे पर ऐसा मधुर कंठ ईश्वर की ओर से उपहार में किसी को नहीं मिला था जैसा कोयली को।
थोड़े समय में ही वह स्थान फलदार वृक्षों के झुरमुटों से ढकने लगा। कोयली छाया की तरह बसंत के कंधे से कंधा मिलाकर हाड़तोड़ मेहनत कर रही थी। उधर, झीतरी गोशाला संभाले हुए थी। बसंत बिना बात किए सिर नीचा किए काम में जुटा रहता। बस काम के लिए आवश्यक होने पर ही वह मुंह खोलता। संकोच उसकी रग-रग में कूट-कूट कर भरा था। कोयली को झुंझलाहट तो होती पर वह कह कुछ नहीं कह पाती। एक दिन कोयली एक पौधे से दूसरे पौधे में पानी का रुख मोड़ रही थी। बसंत पाइप पकड़े हुए पानी डाल रहा था। कोयली सिर उठाकर बोली, ‘सुनो, आपका नाम तो संत होना चाहिए था, बसंत नहीं। इतने गंभीर तो संत ही रहते हैं।’
‘मैं भी यही सोच रहा था कि आपका नाम भी कोयली न होकर कोयल होना चाहिए था। जब आप भजन गाती हैं तो सब मंत्र-मुग्ध होकर सब कुछ भूल जाते हैं।’ बसंत पहली बार कोयली की आंखों में झांककर बोल रहा था।
‘लेकिन आप तो बिना गाए ही भूल रहे हैं, नीचे देखिए! पानी पौधे में न जाकर दूसरी तरफ जा रहा है, कोयली ने जोरदार ठहाका लगाया।’ बसंत ने चौंककर नीचे देखा, तभी झीतरी ने तेज आवाज में पुकारा-‘बसंत! जल्दी आओ, बाबा अचेत हो गए हैं।’
बसंत पाइप छोड़कर उधर भागा। एक मजदूर के साथ बाइक पर बिठाकर वह बाबा को अस्पताल ले गया। बाबा के हार्ट में ब्लॉकेज थे। सो स्टंट डाले गए। कुछ दिन आईसीयू में भर्ती रहकर बाबा घर पर आ गए। दोनों मां-बेटी ने बाबा की खूब सेवा की।
दोपहर को बाबा ने झीतरी और कोयली को बुलाया। बसंत पहले से ही मौजूद था। उन्होंने झीतरी से कहा, ‘बहिन अब मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं है। भैरवधाम तुम सभी की मेहनत से सघन, समृद्ध और सम्पन्न हो रहा है। इसको संभालने की जिम्मेदारी अब बसंत की है। और बसंत का साथ देने का दायित्व मैं अब कोयल को देना चाहता हूं। और इन दोनों के सिर पर तुम्हारा हाथ रहेगा तो फिर मुझे कोई चिंता नहीं। तुम्हें कोई एतराज हो तो बताओ।’ आने वाली बसंत पंचमी पर मैं इन दोनों का धूमधाम से विवाह करना चाहता हूं।’
झीतरी कुछ देर मौन रही, फिर बोली, ‘मुझ पूस के छप्पर से उठकर आई, कोयले बेचकर पेट भरने वाली इस अभागिन को आपने इस वनदेवी से आच्छादित अमराई में आश्रय दिया और अब मेरी बेटी को आप बहू बनाने के लिए कह रहे हैं, एक मां के लिए इससे बढ़कर क्या सुख हो सकता है।’ उसने दोनों हाथ उठाकर कहा, हे ईश्वर! इस महान पुण्यात्मा का जितना भला कर सको, करना। झीतरी के कंठ अवरुद्ध हो गए। चेहरा आंसुओं से भीग गया।
बाबा एक बार फिर बसंत की ओर मुड़े, ‘देखो बसंत! यह भैरव धाम केवल दर्शन का मंदिर मात्र नहीं रह जाए। कोशिश करना यह पौधारोपण, गोमाता संवर्धन, शिक्षा और लोककल्याण का केन्द्र बने। तुम्हारे साथ अब कोयल भी है जो तुम्हारे हृदय में सदा प्रेरणा का संगीत भरती रहेगी।’
चारों ओर सरसों के फूलों की चादर-सी बिछी थी। पलाश लाल फूलों से भर गया था। ठिठुरन का अंत हो गया था और वातावरण में ऊष्मा बढ़ने लगी थी। शाखाओं में नव किसलय झांकने लगे थे। भैरवधाम की सजावट देखते ही बनती थी। बसंत पंचमी को कोयल और बसंत का धूमधाम से विवाह हो गया।