साधना और दान
किसी गांव में देवदास नाम का साधु कुटिया बनाकर रहता था। वह खेती से गुजर-बसर करता था। उसके यहां साधु-संतों का आना-जाना लगा रहता था। एक बार घनघोर वर्षा के चलते देवदास के पास खाने को कुछ नहीं बचा। तभी अचानक बाहर से आवाज आई, देवदास ने द्वार पर आकर देखा कि पांच साधु बाहर खड़े हैं। वह उन्हें कुटिया में लेकर आए। कुशलक्षेम पूछकर बोले, ‘मेरे पास भोजन की व्यवस्था नहीं है। बरसात के कारण खेत में जो कुछ पैदावार हुई वह खत्म हो गई। आज की रात मैं सिर्फ आपके सोने की व्यवस्था कर सकता हूं।’ साधुओं ने आश्चर्य से पूछा, ‘महाराज, क्या गांव से खाने-पीने को नहीं मिलता?’ देवदास ने कहा, ‘मिलता तो बहुत है, लेकिन मैं नहीं लेता। साधु को अपनी साधना से प्राप्त चीजें ही ग्रहण करनी चाहिए। किसी और की मेहनत से कमाई हुई वस्तुएं लेना ठीक नहीं, भले ही वे दान के रूप में क्यों न मिलें। जो साधु बिना साधना के, बिना मेहनत के कुछ पाना चाहता है, वह उस जमींदार की तरह है, जो गरीब किसानों और मजदूरों का हक मारता है।’ प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी