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पवित्र रिश्ते के आत्मीय अहसास

07:38 AM Jul 10, 2022 IST

संजीव कुमार शर्मा

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उसका नाम अक्साना था। वास्तव में, था नहीं, है। ‘था’ का प्रयोग केवल इसलिए किया क्योंकि बात 1991 से शुरू होती है। पूरा नाम अक्साना इवानवना बगदानवा था। यहां ‘इवान’ उसके पिता का नाम था और बगदानव, उसका उपनाम था। बगदानव उपनाम उसी कज़ाख (शूरवीर घुड़सवार योद्धा) सैन्य कमांडर, बगदान खमिलनित्सकी के साथ जुड़ा हुआ है, जिसने 1648 में पोलिश-लिथुआनियाई गणराज्य की सरकार के खिलाफ विद्रोह छेड़ कर यूक्रेन को एक अलग राष्ट्र के रूप में मान्यता दिलवाई और यूक्रेनियों, कज़ाखों और बहुत सारे रूसियों द्वारा एक नायक के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, एक वर्ग उसके आलोचकों का भी है जो उसकी निंदा इस लिए करते हैं क्योंकि उस द्वारा रूसी ज़ार के साथ की गई संधि के परिणामस्वरूप यूक्रेन ज़ार की राजशाही के अधीन आ गया था।

यूक्रेन के शहर खमिलनित्सकी (इस शहर का नाम बगदान खमिलनित्सकी के नाम पर ही पड़ा है) में कंप्यूटर इंजीनियरिंग का द्वितीय वर्ष का छात्र था मैं तब, जब अक्साना हमारे ग्रुप (क्लास) में आई। अत्यंत ही सुंदर, हंसमुख थी वो। गोरा रंग, तीखे नैन-नक्श, आंखों में एक विशेष चमक, आवाज़ में एक अजीब आकर्षण। ऐसा लगता था जैसे सचमुच ही परमेश्वर ने खाली समय में उसे तराशा हो। सीधा दूसरे वर्ष में आई थी वो। मुझे लगा कि शायद वो किसी अन्य संस्थान या विश्वविद्यालय से स्थानांत्रित हो कर आई है। पढ़ाई में अव्वल होने, रूसी भाषा पर अच्छी पकड़ और अच्छी लिखावट होने तथा कक्षा में सदा सक्रिय रहने के कारण औसत विद्यार्थियों के लिए मैं हमेशा ‘ध्यान का केंद्र’ बना रहता, और यही कारण है कि (शायद) शीघ्र ही मेरी अक्साना से भी दोस्ती हो गई। कापियों-किताबों की साँझ से शुरू हो कर, कब हम अपने दुख-सुख साझा करने लग पड़े, पता ही न चला। क्लास समाप्त होने के बाद, ब्रेक के दौरान, क्लास कैंसिल होने पर या फिर वैसे ही वो मेरे हॉस्टल में आ जाती। ‘रूम-पार्टनर’ भी अच्छे थे; पहले यमन से आरिफ और फिर बिहार से समीर। पूरा ध्यान रखते।

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हम अक्सर साथ में लंच करते, चाय पीते और बातें करते थे। भारतीय मसालेदार खाना, दूध वाली चाय उसकी विशेष पसंद बन गए थे। सोवियत संघ का उन्हीं दिनों में पतन, अत्यधिक मुद्रास्फीति, ढहती अर्थव्यवस्था, आवश्यक वस्तुओं की कमी, पैसे की निरंतर कमी, इत्यादि, बहुत कुछ साझा करते थे हम।

इस बीच पता चला कि अक्साना शादीशुदा है और उसके पास कुछ महीनों की एक बच्ची भी है। बच्ची का नाम उसने अनस्तासिया (संक्षिप्त नाम नास्त्या) बताया। अक्साना केवल 17 साल की थी जब उसकी शादी हो गई थी। मेरे अध्ययन के पहले वर्ष के दौरान, वह मातृत्व अवकाश पर थी, इसलिए मुझे लगा था कि वह सीधा दूसरे वर्ष में आई है। वह मुझसे एक साल बड़ी थी। मैं तब उन्नीस का था और वह बीस की। उसकी शादी के बारे में जानकर थोड़ा झटका तो लगा था मुझे, लेकिन पता नहीं क्यों यह बात मेरे ऊपर उतना प्रभाव नहीं डाल सकी थी। शायद हमारे बीच के उस बेनाम रिश्ते की अहमियत कहीं ज़्यादा थी।

दिन-ब-दिन हम एक-दूसरे के और करीब होते गए। निजी बातें भी अब साझा करने लगे। कभी-कभी उसकी बातों से लगता था कि वो अपनी शादी-शुदा ज़िन्दगी से खुश नहीं है। एक बार ऐसा हुआ कि वो कई दिनों तक क्लास में नहीं आई। किसी के हाथ संदेश भी नहीं भेजा। हॉस्टल में लगे ‘ताक्सोफोन’ (जिसमें सिक्का डाल कर बात करते हैं) से उसके घर पर कई बार फोन मिलाया, लेकिन किसी ने नहीं उठाया। 5-6 दिन बाद जब वह आई तो बहुत उदास थी। मैंने कारण पूछा तो वो फूट-फूट कर रोने लगी। उसने कहा कि उसके पति का स्वभाव अच्छा नहीं है और उनके रिश्ते अच्छे नहीं हैं। सनकी सा इंसान है वो। पिछ्ले दिनों में उसने आत्महत्या करने की कोशिश की थी। समय पर उसे अस्पताल ले गए तो वो बच गया। उसी की देखभाल कर रही थी वो इतने दिनों से। मैंने अक्साना को बहुत दिलासा दिया कि समय से सब ठीक हो जाएगा। लेकिन उसने तय कर लिया था कि वह अब उसके साथ नहीं रहेगी और तलाक ले लेगी। कुछ दिनों बाद, उसने बताया कि उसने तलाक की कार्यवाई शुरू कर दी है। वो अब अपनी ‘मामा’ (माँ) और ‘ओत्चिम’ (सौतेले पिता) के साथ रहती है। नास्त्या को वो अब अपने साथ ही रखेगी।

सोवियत संघ के पतन के बाद यूक्रेन स्वतंत्र तो हो गया था, लेकिन अर्थव्यवस्था उसकी पूर्णत: चरमरा गई थी। उद्योग जगत की पहले से ही खराब स्थिति, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, महंगी ऊर्जा की खरीद (जो पहले लगभग पूरी तरह से रूस पर निर्भर थी और अब उससे बहुत सस्ती दरों पर मिलनी बंद हो गई थी), अपराध और मादक पदार्थों का बढ़ना, कानून और व्यवस्था की खराब स्थिति, जैसे असंख्य कारण थे इसके। वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए कॉलेजों/विश्वविद्यालयों ने विदेशी छात्रों को फीस ले कर भर्ती करना शुरू कर दिया। 1992 में भारत से सैकड़ों छात्र यूक्रेन में पढ़ने आए। 20-25 छात्र खमिलनित्सकी में ही आए, जिनमें से ज़्यादातर यूपी-बिहार से थे। डॉक्टर-इंजीनियर बनने। फ़ीसें बहुत कम थीं। फिर ऊपर से यूरोप।

इस आर्थिक स्थिति ने न केवल मुझे या अक्साना को, बल्कि हर नागरिक को प्रभावित किया। हाथ बहुत तंग रहने लग गया था। मासिक स्टाइपेंड से गुजारा करना अब लगभग असंभव था। रोटी, दूध, दही और मक्खन के दाम हजारों गुना बढ़ गए थे। इसलिए, अपने खर्चों को पूरा करने के लिए मैंने प्रोग्रामिंग और गणित विषयों में ट्यूशन लेना शुरू कर दिया और साथ पढ़ते छात्रों जिनमें भारत, ओमान, जॉर्डन, लैटिन अमेरिका, अंगोला, आदि के छात्र शामिल थे, के लिए प्रोजेक्ट वर्क करने शुरू कर दिये। पैसे डॉलरों में ही मिलते थे क्योंकि यूक्रेन की अपनी मुद्रा ‘कूपोन’ का मूल्य हर दिन गिर रहा था। दिन-रात मेहनत करनी पड़ती थी मुझे क्योंकि अपनी पढ़ाई का नुकसान नहीं सह सकता था मैं। चूंकि भापा जी (पिता जी) पार्टी के पूर्णकालिक सदस्य थे, घर की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी, इसलिए वहां से मदद असंभव थी। अक्साना को मेरी इस स्थिति के बारे में पता था।

कभी-कभी कार्य को पूरा करने के लिए लगातार दो-दो दिनों तक जागना; क्योंकि मेरे अपने प्रोजेक्ट की डेडलाइन और उस विद्यार्थी की डेडलाइन (जिसका काम मैंने लिया होता) एक ही दिन या आगे-पीछे होती। इसलिए न कभी अपनी पढ़ाई से समझौता किया, और न ही अपनी जिम्मेदारी के साथ और साल दर साल हर विषय में पांच में से पांच अंक प्राप्त करता रहा। धीरे-धीरे मेरी आर्थिक स्थिति भी कुछ ठीक रहने लग गई।

जहां एक ओर मैं ट्यूशनें या ‘प्रोजेक्ट वर्क’ करके अपना खर्च निकालता था, वहीं मेरे साथ के कई लोगों ने ‘बिज़नेस’ करना शुरू कर दिया। किसी ने कियोस्क किराए पर लिया, कोई भारत से कपड़े-टी-शर्ट, स्वेटर, चमड़े की जैकेटें, नकली आभूषण, चाय-पत्ती आदि ला कर बेचता। हर दो-चार महीने में वो भारत का चक्कर लगाते और सामान ले जाते। यहाँ तक कि कई लोगों ने तो ‘चार्टर प्लेन’ के कारोबार में भी हाथ आज़माया। हालांकि कई छात्रों के लिए, जिन्हें घर से पूर्ण सहयोग मिलता था, किसी काम की आवश्यकता नहीं थी। 5-10 डॉलर काफी थे महीने भर के गुज़ारे के लिए। बहुत खुला खर्च करना हो तो भी 20 डॉलर। अक्साना भी अपने खर्चों को पूरा करने के लिए कहीं क्लर्क के रूप में ‘पार्ट-टाइम’ काम करती थी। साथ ही वह कभी-कभी किसी दूसरे शहर से कोई सामान लाकर ‘तलकूचका’ में खड़े होकर बेचती थी। और ऐसा वो अकेली नहीं, बहुत सारे छात्र करते थे। कभी-कभी जब वह बहुत मुश्किल में होती तो मैं उसकी कुछ आर्थिक मदद कर देता था। हिसाब नहीं था रखा मैंने कभी दिए हुए पैसों का, क्योंकि अंतर नहीं था समझा।

फिर एक दिन अक्साना ने बताया कि उसका तलाक हो गया है। यह बताते हुए वो बहुत ही संतुष्ट लग रही थी। मानो उसके सिर से कोई भयंकर बोझ उतर गया हो। मैंने उससे पूछा कि क्या तुम अब शादी करेगी, तो उसने मना कर दिया। “तो फिर ज़िंदगी कैसे कटेगी?” यह पूछने पर उसने उत्तर दिया, “मैं ‘बगदान’ हूं, जिसका अर्थ है ‘बोग’ (भगवान) ‘दान’ (दिया)। इसलिए भगवान स्वयं ही मेरी देखभाल करेंगे। और तुम हो तो सही मेरे आस-पास, मेरे सबसे अच्छे दोस्त।”

शायद वो नास्त्या को ‘ओत्चिम’ नाम के रिश्ते से दूर रखना चाहती थी।

जब भी मैं उसे याद दिलाता कि मैं जल्द ही भारत लौट जाऊंगा, तो वो भावुक हो जाती, और फिर हम बात बदल लेते। जैसे-जैसे वापसी का समय नज़दीक आता गया, हमारी नज़दीकियां बढ़ती गईं। एक दूसरे को देखे बिना या बात किए एक दिन भी अब गुजर नहीं था सकता। आपसी सम्बोधन भी अब हमारा ‘अक्सानचका’ और ‘संजीवचिक’ तक सीमित हो गए थे (रूसी भाषा में जब हम किसी को बहुत लाड से बुलाते हैं तो ऐसे प्रत्यय (सफ़िक्स) जुड़ जाते हैं, जो स्त्री और पुरुष के अनुसार बदल जाते हैं)। मैं अब अक्सर उसके घर लैंडलाइन फोन पर भी बात करता था। अक्सर बात लंबी हो जाती और तब तक चलती रहती जब तक कि जेब में पड़े सिक्के समाप्त नहीं हो जाते या जब तक कि कोई दूसरा फोन करने वाला इंतजार करते-करते घूरने न लग जाता।

कभी-कभी मैं उससे मिलने उसके फ्लैट पर भी चला जाता। जाता हुआ उन के लिए ‘पिचेनिये’ (बिस्कुट), नास्त्या के लिए ‘चॉकलेट’ और ‘बच्चों की किताबें’ ले जाता। कभी उसकी ‘मामा’ और ‘ओत्चिम’ भी घर पर होते तो वो अच्छी तरह से मिलते। खुलकर बातें करते। हालांकि अधिकतर वो अपने ‘दाचे’ (छुट्टियाँ बिताने के लिए गाँव में बनाया हुआ दूसरा घर) में ही गए होते।

1994 में लियोनिद कुचमा यूक्रेन के नए राष्ट्रपति चुने गए। इस से पहले वो पूर्व राष्ट्रपति लियोनिद क्रवचुक की सरकार में कुछ समय प्रधान मंत्री भी रह चुके थे। उन्होंने कई नई आर्थिक नीतियों की घोषणा की, जिनमें सब्सिडीयों में कटौती, करों में कटौती, कीमतों से नियंत्रण हटाना, उद्योगों और कृषि का निजीकरण, इत्यादि के अतिरिक्त रूस के साथ अच्छे संबंध स्थापित करना, शामिल थीं। इन नीतियों के परिणामस्वरूप यूक्रेन की आर्थिक स्थिति में सुधार होने लगा। वर्ष 1995 तक स्थिति पहले से काफी बेहतर हो चुकी थी। अक्साना भी अब आर्थिक रूप से पहले से बेहतर थी। यह मेरी पढ़ाई का अंतिम वर्ष था।

हम दोनों ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और अब जुदा होने का समय आ गया। 23 अगस्त 1995 वाले दिन मुझे मास्को जाना था और 25 अगस्त को मास्को से दिल्ली के लिए उड़ान थी। दो-तीन दिन पहले वह नास्त्या के साथ मुझसे मिलने आई। “वापस आओगे तुम” उसने पूछा। मैंने कहा, “शायद आ भी जाऊँ। पक्का नहीं कह सकता।” नास्त्या को प्यार दिया और अक्साना को गले लगाया, पहली बार इस तरह कसकर, और शायद आखिरी बार, हमेशा के लिए बिछुड़ जो जाना था। हम दोनों सिसकियाँ भर-भर के रोने लगे। मैंने पूछा, “तुम 23 तारीख को स्टेशन आओगी, मुझे विदा करने।” उसने सहमति में सिर हिलाया। गाड़ी का समय, नंबर और डिब्बा, इत्यादि उसे पहले से ही पता था।

23 तारीख को नियत समय पर पहुँच कर मैं उस का इंतज़ार करने लगा। ट्रेन के चलने में 15 मिनट रह गए थे, लेकिन वह नहीं आई। मेरी निगाहें हर तरफ उसका इंतज़ार कर रही थीं। साथ छोडने आए दोस्तों को मैं वापिस भेज चुका था। उम्मीद समाप्त होने लगी कि तभी अचानक खिड़की से झाँकता हुआ एक सिर दिखाई दिया। फटाफट दरवाज़े की ओर दौड़ा, एक उम्मीद के साथ। यह ‘ओत्चिम’ थे और उनके साथ ‘मामा’। मैंने पूछा, “अक्साना कहाँ है?”, इस उम्मीद के साथ कि शायद वो किसी कियोस्क पर रुक कर नास्त्या के लिए कुछ सामान ले रही हो। लेकिन ‘ओत्चिम’ ने जवाब दिया कि वो नहीं आई। मेरा दिल डूब गया। मेरी “क्यों?” के जवाब में उनकी आँखें  भर गईं।

कहने लगे “वो बहुत उदास है, भावुक हुई हुई है। कहती थी कि मैं उसका सामना नहीं कर सकती। मेरी ओर से उसे ‘दसविदानिया’ (फिर मिलने तक/अलविदा) कहना।” इतना कहकर उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला और बंद मुट्ठी आगे करके मेरे हाथ में खोल दी। मैंने कहा, “यह क्या है?” उन्होंने उत्तर दिया, “यह 320 डॉलर हैं। अक्साना ने तुम्हें देने थे। ना मत कहना। नहीं तो वो हमसे बहुत गुस्से हो जाएगी। वो तुम्हारी वित्तीय हालत को जानती है। तुम्हारे काम आएंगे।” मैंने बहुत मना किया, लेकिन वो नहीं माने और मुझे विदा करके भावुक हो कर चले गए।

अपनी सीट पर आकर मैं कुछ देर के लिए गुमसुम ही हो गया। अक्साना ने पैसे क्यों भेजे? 320 डॉलर बहुत बड़ी रकम थी उस समय मेरे लिए, और अक्साना के लिए भी। इतनी बड़ी कि खुले दिल से खर्च करके भी डेढ़-दो वर्ष का रहने और खाने-पीने का खर्चा निकल जाता। कितना सोचा होगा उसने मेरे बारे में। कैसे हिसाब रखा होगा और कैसे यह पैसे इकट्ठे किए होंगे उसने। मेरा मन एक साथ उसके लिए ‘गुस्से’, प्रेम और सम्मान से भरा हुआ था। बिना किसी इकरार-इज़हार के, उस ने अपने दिल का संदेश मुझ तक पहुंचा दिया था।

यह थी मेरी मोतियों से भी शुद्ध, पाक-पवित्र बेनाम रिश्ते की गाथा। यकीन करें, यदि यह किस्सा स्वयं मेरे साथ न घटित हुआ होता, तो मैं भी शायद उन अनगिनत लोगों की तरह ही सोचता कि एक नौजवान लड़के-लड़की अथवा मर्द-औरत के बीच, पवित्र रिश्ते नहीं हो सकते।

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