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गीत

08:19 AM Sep 10, 2023 IST

अशोक ‘अंजुम’

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अपनी भाषा पर हमको अभिमान ज़रूरी है,
हिंदी का हर सूरत में सम्मान ज़रूरी है।
रसखान ने गान किया इसमें
तुलसी ने इसे बहुरूप सजाया।
कबीरा ने रचे ऐसे दोहे असंख्य कि
भूलों को सत्य का मार्ग दिखाया।
औ’ सूझा न सूर को कोई उपाय तो
मस्ती में गोविन्द-गोविन्द गाया।
कितनों ने ही कंठ बसा के इसे
जग में इस भाषा का मान बढ़ाया।
ये जन-जन तक पहुंचे यूं अभियान ज़रूरी है,
हिन्दी का हर सूरत में सम्मान ज़रूरी है।

है हिन्दी का हृदय विशाल बड़ा
सबको ही रिझाती, लुभाती है ये।
हैं कितनी ही भाषा के शब्द यहां
बड़े प्यार से अपना बनाती है ये।
बड़ी सम्पन्न है, दीन-हीन नहीं
यूं है मीठी कि मन में समाती है ये।
सारे विश्व में ही मान-सम्मान है
सारे विश्व में ही बोली जाती है ये।
है गुणवान इस कदर तो, गुणगान ज़रूरी है,
हिंदी का हर सूरत में सम्मान ज़रूरी है।

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ये तो चारों दिशाओं में गूंज रही
कमज़ोर कहें, कमज़ोर हैं वो।
जो अपनी को छोड़ परायी गहें
इंसान नहीं, पशु-ढोर हैं वो।
सुन के निजभाषा को लज्जित हों
बड़े हृदयहीन, कठोर हैं वो।
जो हिंदी की खाते-उड़ाते रहे
हिंदी-सेवी कहां, अजी चोर हैं वो।
इन चोरों की अब मित्रो पहचान ज़रूरी है,
हिन्दी का हर सूरत में सम्मान ज़रूरी है।

 

बाकी शब्दों का संसार

कितनों से किए क़ौल-औ-करार, याद नहीं
गुजरी ख़िज़ां में या आई बहार, याद नहीं।
धुंधला-सा एक चेहरा दिखता है बार-बार
शायद करता था मुझसे प्यार, याद नहीं।
जिंदगी भर शब्दों से खेला याद है इतना
छूट गया कब शब्दों का संसार याद नहीं।

तालियों की गड़गड़ाहट तो याद आती है
कौन था दर्शक दीर्घा के पार? याद नहीं।
अलमारी में रखी है जो चमचमाती ट्रॉफियां
क्या मेरा था इन पर अधिकार? याद नहीं
इन किताबों पर मेरा नाम क्यों लिख रखा है?
क्या मेरे ही हैं यह सब शाहकार? याद नहीं।

याद आते हैं कभी काशी, कभी गंगा और संगम
उतरा मैं कभी उन घाटों के पार? याद नहीं।
पहले कभी बैठा रहता था यूं बेकार याद नहीं
दिन में भी छाया रहता था अंधकार याद नहीं।
संधि वेला में दिखने लगा है अब दूसरा जहां
रुकना है या जाना है उस पार याद नहीं।

- विनोद खन्ना

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