विछोह की टीस से उपजे अहसासों की ‘सोनाशा’
अरुण नैथानी
जिगर के टुकड़े का विछोह कितनी मर्मांतक पीड़ा दे जाता है, एक मां से ज्यादा और कौन बयां कर सकता है। पोरों के आंसू भी निरंतर बहने के बाद एक वक्त सूखने लगते हैं। एक कवयित्री के ये अहसास जब शब्दों में घनीभूत होते हैं तो उद्वेलित करने वाला सृजन सामने आता है। एक ऐसा सृजन जो किसी आत्मीय के कभी लौट न आने के दर्द से भीगा हो। तब दिल का दर्द शब्दों की नदी में तैरने लगता है। बिट्टु सफीना संधू की काव्य रचना ‘सोनाशा’ से गुजरते हुए मन को भिगोते ये शब्द रह-रह कर विछोह की टीस का अहसास कराते हैं। बहुचर्चित रचना ‘सफीना’ के प्रकाशन के एक दशक बाद ‘सोनाशा’ पाठकों तक पहुंची है। वैसे पुस्तक की तैयारी छह साल पहले हो गई थी, लेकिन बेटे के असमय विछोह से जीवन में आए तूफान में रचना कहां मुकम्मल हो पाती।
बिट्टु सफीना लिखती भी हैं- ‘जिस सफीना को आपकी दुआओं के साथ पानी में उतारा था, वो पिछले कई बरसों से बीच मझधार हिचकोले खा रही है। सोनाशा 2017 से तैयार थी। यूं कहिए कि मेरे जिगर का टुकड़ा नहीं, मेरा जिगर, मेरा बेटा करन इसे आप तक लाने वाला था। मगर तकदीर को ये मंजूर नहीं हुआ। मेरा बेटा मुझसे बिछुड़ गया। शायद खुदा को उसकी ज्यादा जरूरत थी। मैं बेबस मूक दर्शक बनी देखती रही और वो मेरे हाथों से रेत की मानिंद फिसल गया, मैं हाथ मलती रह गई। मेरी जिंदगी जैसे बिल्कुल मौन हो गई। मैं और जिंदगी करन को ढूंढ़ने लगे।’
निस्संदेह, ऐसा दुख किसी मां के लिये अकहनीय व असहनीय ही है। इस ‘सोनाशा’ को जीवंत व हृदयस्पर्शी चित्रों के सृजन से स्वर्णिम आभा देने वाले मशहूर चित्रकार-साहित्यकार इमरोज लिखते हैं- ओ जदी वी मिलदी है/ कहंदी है/ मेरे फुल/मेरा जी करदा है/ मेरे हत्थां विच कोई बाग/आ जाए-/ मैं उसदे हथ वी फुलां नाल भर देआं/ ते उसदे प्यारे चाअ वी/ ओ आपणे आप विच ‘सोनाशा’ है।’
बहरहाल, समीक्ष्य कृति ‘सोनाशा’ में 45 काव्य रचनाएं संकलित हैं। ये रचनाएं हैं तन-मन को भिगोने वाली, हादसों की, मुस्कराहटों की, भूले-बिसरे अहसासों की। कुछ खुशबुएं भी हैं। अंतर्मन को भिगोते अहसासों की शृंखला भी है यहां। प्रेम के कई रंग हैं तो खामोश चीखें भी हैं। रूह की आवाज का शब्दों में ढलने जैसा। कायनात रचने वाले के लिये सजदा है तो गिले-शिकवे भी। चांद कविता देखिये– ‘चांद भी तन्हा था आज/ तारे चले गए न जाने किसकी बारात में।’ ‘कतरा’ कविता मन को भिगो जाती है- ‘सूखी आंखें तकती हैं रास्ता/आज भी पूछती हैं हर आने वाले को/ क्या मेरे लिये कोई पैगाम आया है?’ शिकवा में वे लिखती हैं- जब जुबां देता है तो कोई सुनने वाला नहीं/ होंठ सी लिये तो बता क्या सुनाऊं दास्तां।’ निस्संदेह, पुस्तक के शब्द-शब्द पाठकों से आत्मीय संवाद करने में सक्षम हैं।
पुस्तक: सोनाशा कवयित्री : बिट्टु स़फीना संधू प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 108 मूल्य : रु. 499.