कुछ तो बर्फ पिघली
अब भरोसा बहाली चीन की जिम्मेदारी
यह कोई महज संयोग नहीं कि भारत और चीन रूस में होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर गश्त लगाने पर एक समझौते पर पहुंचे है। इस निर्णय के गहरे कूटनीतिक व सामरिक निहितार्थ हैं। कूटनीतिक हलकों में संभावना जतायी जा रही है कि ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के साथ द्विपक्षीय बैठक कर सकते हैं। कहना गलत न होगा कि सीमा विवाद से जुड़े इस फैसले ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच सौहार्दपूर्ण बातचीत के लिये एक मंच तैयार कर दिया है। यह एक हकीकत है कि जून 2020 में हुए गलवान संघर्ष के बाद दोनों देशों के रिश्तों में एक बर्फ सी जम गई थी। यहां तक कि दोनों देश द्विपक्षीय बातचीत करने से भी परहेज कर रहे थे। बहरहाल, गलवान संघर्ष के चार साल बाद आखिरकार दोनों देशों के पास दुनिया को कुछ सकारात्मक दिखाने को तो है। वैसे भी इस गतिरोध के चलते एक बेहद जटिल भौगोलिक परिस्थितियों में दोनों देशों की सेनाओं को चौबीस घंटे तैयार रहने की स्थिति में नजर आना पड़ता था। इसके अलावा इस घटनाक्रम से यह संदेश भी दुनिया में जाएगा कि दोनों देश बातचीत के जरिये अपने मतभेदों को सुलझा सकते हैं। यह घटनाक्रम उस विश्वास को भी मजबूती देगा, जिसमें कहा जा रहा है कि मोदी और शी जिनपिंग यूक्रेन-रूस संघर्ष में मध्यस्थ की भूमिका निभा सकते हैं। वैसे यह उम्मीद करना जल्दबाजी ही होगी कि भारत-चीन सीमा पर जमीनी हालात जल्द ही सामान्य हो जाएंगे। भारत को भी गहरे तक इस बात का अहसास है कि बीजिंग को सीमा समझौतों की अवहेलना करने की आदत है। ऐसे में इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हालिया फैसले का भी ऐसा ही कोई हश्र हो। ऐसे में भारत को फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है।
वहीं दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम में तेजी से आ रहे बदलावों और महाशक्तियों के निरंकुश व्यवहार के चलते दुनिया फिर दो ध्रुवों में बंटती नजर आ रही है। यही वजह है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन और शी जिनपिंग ब्रिक्स समूह को ताकतवर बनाने के प्रयासों में जुटे हुए हैं। इस संगठन में नये देशों को शामिल करने की कवायद लगातार जारी है। बहरहाल, चीन की हालिया सकारात्मक पहल के बावजूद भारत को सतर्क रहने की जरूरत है। अतीत में चीन भारतीय सीमाओं में अतिक्रमण की कोशिश करता रहा है। गलवान में चीनी सैनिकों द्वारा यथास्थिति में एकतरफा बदलाव से ही इस विवाद ने तूल पकड़ा। उसके बाद भारत ने सैन्य व राजनयिक वार्ताओं के जरिये इस विवाद को दूर करने का भरसक प्रयास किया। लेकिन इसके बावजूद डेपसांग और डेमचोक के टकराव वाले बिंदुओं से चीनी सैनिकों की वापसी नहीं की गई। अतीत में देश ने चीनी हठधर्मिता के कई मामले देखे भी हैं। एक ओर चीन बातचीत से समस्या के समाधान की दुहाई देता है तो दूसरी ओर एलएसी के निकट बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण करता रहा है। ऐसे में भारत को भी सतर्कता के चलते बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण करने को बाध्य होना पड़ा। भारत सरकार और रक्षा बलों को चाहिए कि एलएसी पर हर गतिविधि पर कड़ी नजर रखें। अतीत में भी हमने चीन पर भरोसा करने की कीमत चुकाई है। जिसके जख्म देश महसूस करता रहा है। वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार को भी चाहिए कि सीमा की वास्तविक स्थिति से देश को अवगत कराते रहें। विगत में विपक्षी राजनीतिक दल सीमा पर चीनी अतिक्रमण की वास्तविक स्थिति से देश को अवगत न कराने के आरोप राजग सरकार पर लगाते रहे हैं। वे सरकार के उस तर्क से सहमत नहीं थे कि न कोई हमारी सीमा के अंदर है और न ही हमारी किसी पोस्ट पर कब्जा किया गया है। निस्संदेह, चीनी सीमा की संवेदनशीलता को स्वीकारते हुए जन भावनाओं का सत्ताधीशों को ख्याल रखना चाहिए। बहरहाल,अधिक सतर्कता और पारदर्शिता से भारत को चीन को बात आगे बढ़ाने के लिये प्रेरित करने में मदद मिल सकती है।