नवनिर्माण का जरिया बने सामाजिक न्याय
उमेश चतुर्वेदी
भारतीय समाज और राजनीति के लिए जाति एक ऐसा तत्व है, जिस पर सबसे ज्यादा विमर्श और वितंडा- दोनों होते रहे हैं। जाति को लेकर इन दिनों राजनीतिक परिधि में जो कुछ भी हो रहा है, उसे विमर्श तो कतई नहीं कहा जा सकता, बल्कि वह वितंडा है। मोदी की अगुआई वाले एनडीए को हर मुमकिन मोर्चे पर चुनौती देने की कोशिश में जुटा विपक्षी खेमा जहां जाति जनगणना की रट पर लगातार कायम है, वहीं केंद्र सरकार लगातार इसे सामाजिक स्वास्थ्य के लिए आसन्न खतरा मानते हुए इसे टालती रही है। इसी बीच संसद में भाजपा के नेता अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी की जाति पूछ ली। इसके बाद न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि अखिलेश यादव का पूरा सियासी कुनबा इस सवाल पर क्षुब्ध है।
जाति व्यवस्था को सामाजिक कोढ़ बताने वालों का मानना था कि अगर विकास और आधुनिकता आएगी तो जाति व्यवस्था अपने आप टूट जाएगी। गांधी मानते थे कि अछूतोद्धार के जरिए समाज में बराबरी का संदेश जाएगा। जबकि अंबेडकर मानते थे कि सामाजिक विकास यात्रा में पीछे छूट गए लोगों को आरक्षण देकर पहले सबल बनाया जाना चाहिए। वह तबका सबल होगा तो जाति व्यवस्था में बराबरी का भाव आएगा। जबकि लोहिया सोचते थे कि पिछड़ों को आर्थिक रूप से ताकतवर बनाकर आगे लाया जाए तो सामाजिक समानता का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। कुछ ऐसी ही सोच दीनदयाल उपाध्याय की भी रही। लेकिन बहुजन आंदोलन के अगुआ कांशीराम इससे आगे निकल गए। उनकी मान्यता रही कि पिछड़े और दलितों को सत्ता मिल जाए तो जाति टूट जाएगी।
मोटे तौर पर चारों वैचारिकी के आधार पर देखें तो जाति सामाजिक रूप से टूटती तो नजर आ रही है, लेकिन जैसे-जैसे आरक्षण की राजनीति अंबेडकर की बुनियादी सोच से आगे बढ़ने लगी, राजनीतिक रूप से जातियां अपने-अपने दायरे में और मजबूत होती गईं। जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी की सोच बढ़ने लगी। वोट बैंक की राजनीति ने इस प्रक्रिया को और बढ़ावा दिया। सत्ता के लिए बहुमत हासिल करने के लक्ष्य को लेकर लगातार सक्रिय राजनीति ने जातीय समूहों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश में उनकी मांगों को उछालना शुरू किया। हर राजनीतिक समूह अपने हिसाब से अपनी समर्थक जातियों की राजनीतिक मांगों को जायज ठहराने लगा। इस पूरी प्रक्रिया में सामाजिक रूप से जाति को तोड़ने की सोच पीछे छूटती चली गई। दिलचस्प यह है कि जब कोई जातीय समूह किसी खास राजनीतिक ताकत का साथ छोड़ने लगा तो उसके हक और अधिकारों की मांग उस राजनीतिक ताकत के लिए गौण होने लगी।
भारतीय संविधान में दलितों और आदिवासी समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करते वक्त डॉ. अंबेडकर ने इसे अनंतकाल तक चलाने से चेताया था। संविधान में शुरुआती दस साल के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था रखी गई थी। आरक्षण का लक्ष्य अब हर जातीय समूह का जीवन-मरण का उद्देश्य बन गया है। जाति जनगणना की मांग जातीय समूहों को राजनीतिक समूहों द्वारा संतुष्ट करने की कोशिश है कि वह उसके इस जीवन-मरण के लक्ष्य के साथ खड़े हैं।
अब चाहे गांधी रहे हों या अंबेडकर या फिर लोहिया या दीनदयाल, उनके विमर्श की गहराई से पड़ताल करेंगे तो उनके विचारों और सिद्धांतों का बुनियादी मकसद सत्ता की राजनीति नहीं, सामाजिक समानता के जरिए भारतीय समाज का निर्माण लगता है। लेकिन उनके नाम पर राजनीति करने वाले आधुनिक समूहों को देखिए तो समाजवादी धारा की मौजूदा राजनीति की प्रभावी ताकतों के पास भारतीय समाज बनाने का कोई ठोस सामाजिक कार्यक्रम नहीं दिखता। उनकी राजनीति की गहराई से पड़ताल करें तो उनमें जातीय उन्माद बढ़ाने और फैलाने का भाव ज्यादा नजर आता है। कांग्रेस की राजनीति अतीत में ऐसी अतिवादी नहीं रही है, लेकिन अब उसकी भी राजनीति उसी राह पर चल रही है। साफ लगता है कि जाति की राजनीति और जातियों को उनके दायरे में और बुलंद बनाने की प्रक्रिया को राजनीतिक सहयोग देने वाले राजनीतिक समूहों का एकमात्र मकसद सामाजिक बराबरी लाना नहीं है, बल्कि इन जातीय समूहों को आधार बनाकर खुद सत्ता हासिल करना है।
खुलेआम जातीय राजनीति करने वालों को शायद यह पता नहीं है कि जिन सवर्ण जातियों के खिलाफ बाकी जातियों को गुस्से से भरने में वे मशगूल हैं, उन्हीं जातीय समूहों में कुछ ऐसी जातियां भी हैं, जिन्हें सवर्ण जातियों के बीच दोयम हैसियत रही है। ये मौजूदा जातीय विमर्श में पिछड़े नजर आते हैं। लेकिन सत्ता की राजनीति में मशगूल राजनीति को इस ओर ध्यान देने के लिए फुर्सत नहीं है। बेहतर होता कि इस नजरिए से भी राजनीति सोचती।
सच तो यह है कि सामाजिक रूप से जब भी जाति व्यवस्था टूटने की ओर बढ़ने लगती है, राजनीति उसकी दरार को और बढ़ाने के लिए आगे आ जाती है।
जाति पूछने को लेकर उठे राजनीतिक बवाल के बीच कुछ सवाल भी बनते हैं। राजनीति से उम्मीद की जाती है कि वह कम से कम जिस तरह वह खुद का व्यवहार करती रही है, वैसा व्यवहार वह दूसरों से भी करती है। उसके पास कोई विशेषाधिकार नहीं है कि वह सामने वाले को जाति के नाम पर जलील करे और अपनी जाति पर आ जाए तो चिढ़ जाए।