व्यंग्यों में सामाजिक सरोकार
अशोक गौतम
आज व्यंग्य साहित्य के उपवन में बीसियों चर्चित नाम हैं जो अपनी लेखनी के माध्यम से व्यंग्य की परवरिश करने में जुटे हैं, उन्हीं में से एक नाम है डॉ. प्रदीप उपाध्याय। उनका व्यंग्य संग्रह ‘ये दुनिया वाले पूछेंगे’ उनके व्यंग्य लेखन की परिपक्वता का परिचायक है। व्यंग्य संग्रह दो भागों में विभक्त है, खौफ़ के साये में और खुले आसमान तले। दोनों भाग अपने समय की अलग-अलग सामाजिक मनोस्थितियों को व्यक्त करते हैं। संग्रह के पहले भाग के व्यंग्यों में महामारी का साया इस संग्रह के व्यंग्यों में साफ देखा जा सकता है तो दूसरे भाग में महामारी से हटकर व्यंग्य संकलित किए गए हैं।
इस संग्रह से गुजरते हुए लगता है कि व्यंग्य उनके लिए शाब्दिक तिकड़म नहीं, सामाजिक सरोकार हैं। व्यंग्यों की एक -एक पंक्ति पाठक को पढ़ने, सोचने के लिए विवश करती है। विसंगतियों के प्रति आक्रोश और आक्रामकता से सराबोर डॉ. प्रदीप उपाध्याय के संग्रह के चयनित व्यंग्य बेहद कलात्मक बने हैं यथा-कोराेना आखिर तुम हार ही गए, और वह पॉजिटिव हो गया, पैसठियाने की दहलीज पर, आपदा ही तो अवसर है, दो पाये और चौपाये का स्वाभाविक अंतर, गुड़ गोबर हो जाना, सिरफिरों के हाथों में, ये दुनिया वाले पूछेंगे, और ऊपर से अपनी बात पाठकों से सपाट होकर कहने का तरीका। ये सब इस संग्रह के व्यंग्यों में सहज देखा जा सकता है।
इस संग्रह के व्यंग्यों में व्यंग्य के नाम पर उन्होंने जो लिखा है, वह वह व्यंग्य ही है। संग्रह में जो थोड़ा अखरता है तो वह बस यही कि कुछ व्यंग्यों के शीर्षक लंबे हो गए हैं। हो सकता है इसके पीछे व्यंग्यकार का अपना कोई खास दृष्टिकोण रहा हो।
पुस्तक : ये दुनिया वाले पूछेंगे व्यंग्यकार : डॉ. प्रदीप उपाध्याय प्रकाशक : सर्वप्रिय प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 114 मूल्य : रु. 100.