सामाजिक-मानसिक दुराग्रह दूर हों समता के लिए
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
वर्ष 1995 में विभिन्न देशों की सरकारों, संस्थानों, गैर-सरकारी संस्थाओं ने बीजिंग सम्मेलन में लैंगिक असमानता को मिटाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कार्यवाही करने का संकल्प लिया था। किन्तु इस दिशा में अपेक्षित प्रयास और प्रगति अभी भी शोचनीय है। अपने प्रति हो रही गैर-बराबरी पर ध्यान आकर्षित करने के लिए लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध महिलाओं ने 1911 के 19 मार्च से ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाकर आवाज उठाना आरंभ कर दिया था। वर्ष 1914 से ये आयोजन हर साल 8 मार्च को होने लगा। वर्ष 1975 में इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मान्यता दे दी थी।
जब हम लैंगिक समता को स्थापित करना चाहते हैं तो समझ लें कि असमानता को उन्हीं स्तरों पर समाप्त करने से काम नहीं चलेगा जो कानूनी हैं, प्रशासनिक हैं अथवा कार्पोरेट जगत के हैं। उस सामाजिक सोच में भी बदलाव की आवश्यकता रहेगी जहां नैतिकता व अपेक्षाओं के मानक पुरुषों व महिलाओं के लिए अलग-अलग हैं। परिवार में लड़कियों के मामले में ही हम क्यों कहते हैं कि कुछ ऊंच-नीच हो जायेगी। पुरुषों के मामले में ऐसा क्यों नहीं कहते हैं। पूरी सोच इसी पर होती है कि लड़कियां ऐसा नहीं करती हैं या लड़के ऐसा नहीं करते हैं। इसी मानसिकता का ही नतीजा होता है कि बलात्कारी किशोरों के जघन्य जुर्म को हल्के में लेते हुए कहा जाता है कि लड़के तो लड़के ही हैं। या पीड़ित लड़कियों या महिलाओं को ये संदेश देने की कोशिश की जाती है कि उनके पहनावे या देर तक बाहर रहने के कारण उन पर यौनिक हिंसा हुई।
लैंगिक समानता को पाने में ऐसा भाव, चाहे महिलाओं में हो या पुरुषों में, बना रहना लैंगिक समानता पाने में एक अवरोधक है। इस कारण वे जेंडर अन्याय को भी नहीं पहचान पाते हैं। कई बार महिलाओं की स्वयं की सोच भी लैंगिक समानता के हक को पाने में या दूसरों के लिए उसको दिलाने में बाधक हो सकती हैं। उन्हें ‘ऐसा तो होता ही आया है’ की मनोवृत्ति से बाहर निकलना ही होगा। पुरुष मुख्यतः केवल अपने ऑफिस या काम के लिए जाने को तैयार होता है। महिलाएं सारा काम निपटा कर टिफिन तैयार कर दिन में उसके न रहने पर घर में जो होगा उसकी जरूरतें कैसे पूरी होंगी, ये सब सुनिश्चित कर काम पर जाती हैं। काम से घर लौटने पर महिला रसोई प्रबंधन व बच्चों के होम वर्क पर लग जाती है। पुरुष अपनी रुचि अनुसार ऑफिस से लौटने के बाद स्वतंत्र समझता है।
जहां दम्पति दोनों नौकरीपेशा हों, वहां कार्यालय काम से घर आने के बाद और कार्यालय काम में जाने के पहले का व्यवहार या स्थितियां भी लैंगिक असमानता के सूचक ही नजर आते हैं।
सामाजिक व व्यक्तिगत सोच में नैतिकता व अपेक्षाओं के मानक पुरुषों व महिलाओं के लिए जब अलग-अलग हों तो लैंगिक समतामूलक न्याय भी कैसे पाया जा सकता है। यथार्थ में तो जिस तरह से किशोर अपराधियों व बलात्कारियों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है उसकी चेतावनी तो यह है कि ऊंच-नीच के संदर्भ में लड़कों पर ज्यादा नजर रखे जाने की जरूरत है। फिर भी पूरा प्रवचन इसी पर होता है कि लड़कियां ऐसा नहीं करतीं, लड़के ऐसा नहीं करते।
इसी मानसिकता के चलते राजनीति, प्रशासन या प्रोफेशनल क्षेत्र में उच्च मुकाम पाई महिलाओं को अपने व्यक्तिगत जीवन को लेकर दुष्प्रचार झेलने पड़ते हैं। कहीं-कहीं महिला पंचायत प्रधानों के अधीन पंचायत कर्मी काम नहीं करना चाहते हैं। ऐसे ही माहौल में खाप पंचायतें इतनी प्रबल हो जाती हैं कि सुप्रीमकोर्ट को उन्हें बालिगों के मामले में हस्तक्षेप न करने को चेताना पड़ता है। लैंगिक समता पाने को व्यक्तिगत, सामाजिक-मानसिक जकड़नों व सोच के पतन पर भी चोट वांछित है।
सच्चाई यह भी है कि महिलाओं के पास भी पर्याप्त अवसर रहते हैं कि वो समाज में लैंगिक समानता के प्रति संवेदनशील होने के लिये बचपन से ही बच्चों को तैयार कर सकें। शिक्षक ज्यादातर कम से प्राथमिक कक्षाओं में महिलायें ही होती हैं। मां के रूप में भी अपने बच्चों में चाहे वे लड़के हों या लड़की लैंगिक समानता के लिए संवेदना बढ़ाने व उसे आचरण में अपनाने के लिये प्रेरित करने में महिलाओं के पास पर्याप्त अवसर होते हैं। यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो उस पर हम सभी को आत्मविश्लेषण की जरूरत है।
कन्या जन्म में महिलाओं के लिये प्रताड़ना मुख्यतः पारिवारिक महिलाओं के दबावों के कारण ही आती है। वहीं किशोरियों या महिलाओं को देह व्यापार में धकेलने में महिलाओं की संलिप्तता बहुत देखी जा रही है।
लैंगिक भेदभाव मिटाने को आमजन को भी अपनी-अपनी जगह पर प्रयास करने होंगे। लैंगिक असमानता को प्रतिपादित करने वाले वातावरण पर चोट करने का काम तो करना ही होगा। हममें से हर कोई अवसर आने पर अपने व्यवहार से कर सकता है।
निस्संदेह, कुछ चीजें सामाजिक परिवर्तनों व उनकी सामाजिक स्वीकार्यता से भी हुई हैं। कानूनी समर्थन तो उनके लिए बाद में आया। अतः समाज जहां लैंगिक असमानता के लिए जिम्मेदार रहा हो, वहीं वह लैंगिक भेदभाव समाप्त करने में भी सहायक हो सकता है। बदलाव के लिए नेताओं को तो काम करना ही होता है। आजादी के पहले कतिपय क्षेत्रों में सतीप्रथा का जारी रहना समाज की मूक स्वीकृति ही थी। कानून ने इसे प्रश्रय नहीं दिया था। इसकी समाप्ति में भी सामाजिक आंदोलन की प्रमुख भूमिका थी।