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...ताकि हरेक लाइन की शुरुआत महिला से हो

06:29 AM Dec 05, 2023 IST

सोनम लववंशी
जहां भी किसी खिड़की के सामने लाइन लगती है वहां पुरुषों के अलावा महिलाओं की लाइन अलग लग जाती है। ऐसा कोई नियम तो नहीं, पर महिलाएं सुरक्षा कारणों से अपने लिए ये सुविधा लेती हैं। यदि महिलाओं को पुरुषों की बराबरी में आना है, तो पहले तो उन्हें ये सोच बदलनी होगी कि उन्हें हर जगह अलग लाइन चाहिए। वास्तव में तो महिलाएं पुरुषों के बराबर नहीं, उनसे कहीं आगे हैं। महिलाएं प्रतिभा और क्षमता का स्रोत हैं, जो सामाजिक प्रथाओं की मौजूदगी के बावजूद कोई भी लक्ष्य पाने में सक्षम हैं।

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बराबरी के मायने

महिलाएं जीवन के किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। कुछ लोगों का मानना ​​है कि महिलाओं को समाज में पुरुषों के समान अधिकार मिलना चाहिए। जबकि, वास्तविकता यह है कि पुरुष समाज उन्हें बराबरी देने का आशय उन्हें सुविधा देने तक ही समझता है। सवाल यह है कि महिलाओं को पुरुषों से प्रतिस्पर्धा करके अपना स्तर बढ़ाने की जरूरत ही क्यों? महिलाओं को सशक्तीकरण की जरूरत ही नहीं है! महिलाओं को पुरुष समाज से प्रोत्साहन नहीं चाहिए। वे स्वयं किसी भी चुनौती को स्वीकारने में सक्षम हैं। प्रयासों को लैंगिक समानता पर केंद्रित करने के बजाय समाज विचार बदले। यह स्वीकार करने के लिए प्रेरित करे कि महिलाएं कुछ भी हासिल कर सकती हैं। बशर्ते उनके लिए सामाजिक बाधाएं खड़ी न करें।

चुनौतियों-पाबंदियों का सामना

महिलाओं को समाज में जन्म से ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कच्ची उम्र के पड़ाव से ही बंदिशों में बांधने की रिवायत शुरू कर दी जाती है। वे जीवन के शुरुआती चरण से ही सीखती हैं कि परिवार की खातिर अपनी खुशियों का त्याग कैसे करना है। लड़कियों को उच्च शिक्षा देने पर पाबंदी लगाई जाती है, ज्यादा हुआ तो आर्ट्स या होम साइंस लेने की सलाह दी जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार आज भी पुरानी मान्यताओं, बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण सुरक्षा की चिंता में बेटियों को स्कूल-कॉलेज भेजने से झिझकते हैं। लेकिन, ऐसे कई उदाहरण हैं, जब उन्होंने रूढ़ियों को तोड़ते हुए वे शिक्षा में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया।

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भागीदारी और विकास

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफएस-4) की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 15 साल से बड़ी उम्र की हर तीसरी महिला घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा है। ये आंकड़ा बताता है कि महिलाओं की चुनौतियां न केवल बाहरी बल्कि घरेलू भी हैं। देखा जाए तो महिलाएं अपनी सुरक्षा को लेकर हमेशा चिंतित रहती हैं। यूएनजीसी के एक अध्ययन के मुताबिक, श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी को पुरुषों के समान स्तर तक बढ़ाने से देश की जीडीपी को 27 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। इस अध्ययन की मानें तो देश में महिला श्रम-शक्ति की भागीदारी 2006 में 34 प्रतिशत से घटकर 2020 में 24.8 प्रतिशत हो गई है। इस गिरावट का बड़ा कारक लैंगिक असंतुलन है। महिलाओं के लिए कैब, मातृत्व लाभ जैसी प्रशासनिक लागतें बचाने के लिए संगठन महिला कर्मचारियों की भर्ती करने से बचते हैं।

कामकाज की मुश्किलें व भेदभाव

कैटलिस्ट इंडिया के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में लिंग-आधारित वेतन अंतर बहुत अधिक है। समान कार्यों और काम के घंटों के बावजूद, उद्योग में महिलाओं का वेतन कम है। देश में महिला समानता के चाहे जितने दावे किए जायें लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इसके उलट ही होती है। समान वेतन नीतियों की वकालत के बावजूद इस स्थिति में सुधार नहीं। महिला कर्मियों को मातृत्व अवकाश और अपने पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने के लिए अवकाश प्राप्त करने में कठिनाइयां पेश आती हैं। कुछेक कठिन दिनों में भी काम करना मजबूरी हो जाता है। कई बार चरित्र पर ही पुरुष सहकर्मी सवाल उठाना शुरू कर देते हैं।

अतिरिक्त दायित्व

उक्त स्थितियां महिलाओं के लिए दुख और अपमान का कारण बनती हैं। इस सबके परिणामस्वरूप, कार्यस्थल पर लोगों के साथ व्यवहार करते समय महिलाएं हमेशा अतिरिक्त देखभाल का बोझ अपने दिमाग में रखती हैं। महिला सशक्तीकरण के कई विषय हैं जो उनके जीवन को बेहतर बना सकते हैं। महिलाओं को कुछ भी करने या हासिल करने के लिए सामाजिक सहायता की आवश्यकता नहीं होती है; लेकिन समाज को सीखना चाहिए कि एक सहानुभूतिपूर्ण इंसान के रूप में नैतिक रूप से कैसे कार्य किया जाए। बाधाओं के बावजूद, महिलाएं राजनेता बनने के साथ ही अधिकारी, एथलीट, अंतरिक्ष यात्री, सशस्त्र बलों और व्यावसायिक संगठनों में वरिष्ठ पदों पर आसीन हो सकती हैं। यह दर्शाता है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में कैसे अधिक मजबूत हैं।

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