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सुलगते जंगल

07:58 AM May 08, 2024 IST
सुलगते जंगल
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हिमालयी क्षेत्र पूरे देश के मौसम का नियामक है। उत्तराखंड से निकलने वाली गंगा-जमुना जैसी अनेक सदानीरा नदियां देश की जीवनधारा को सींचती हैं। ग्लेशियरों वाले इलाके में जहां जलभंडार हैं, वहीं समृद्ध जैव विविधता भी। ऐसे में गंगा-जमुना के मायके के जंगलों से लगातार आग के समाचार परेशान करते हैं। मई के पहले सप्ताह में ही आग लगने की करीब साढ़े नौ सौ घटनाएं दर्ज हो चुकी हैं। जिसमें करीब बारह हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र को अग्निकांड से नुकसान हुआ । पांच लोगों के मरने की भी खबर है। यूं हर साल उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की खबरें आती हैं। यह सिलसिला मार्च के अंत से शुरू होकर मई तक चलता है। लेकिन इस बार यह संकट ज्यादा गंभीर नजर आ रहा है। कई जनपदों में दृश्यता में कमी आई है। राज्य सरकार के सीमित संसाधनों व भौगोलिक जटिलताओं के चलते वनों का धधकना जारी है। काबू पाने के लिये वायुसेना व एनडीआरएफ की मदद ली जा रही है। यह एक हकीकत है कि जंगलों के धधकने में मानवीय हस्तक्षेप कहीं न कहीं जरूर होता है। माना जंगलों में गिरने वाली पत्तियों व घास का समय रहते निस्तारण न होने से ज्वलनशीलता तो होती है, लेकिन आग इंसानी लापरवाही या साजिश से ही लगती है। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि नवंबर 2023 से अब तक करीब पौने चार सौ वन अपराधों के मामले पंजीकृत हो चुके हैं। इसमें साठ लोगों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट दर्ज हो चुकी हैं। इस बात को उत्तराखंड का वन विभाग भी स्वीकार करता है कि 95 फीसदी अग्निकांड के मामलों में मानवीय दखल जिम्मेदार होता है। जिसमें लापरवाही के साथ-साथ इरादतन लगाई गई आग भी शामिल है। इस बार जहां आग लगाने के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई हुई है, वहीं विभाग के लापरवाह अधिकारियों की जवाबदेही तय करते हुए उनके खिलाफ भी लापरवाही के चलते कार्रवाई की जा रही है।
दरअसल, अग्निकांडों के बाद कार्रवाई फॉरेस्ट एक्ट व वन्य जीव संरक्षण कानूनों के तहत की जा रही है। इसके अलावा सार्वजनिक व निजी संपत्ति नुकसान क्षतिपूर्ति कानून के तहत भी कार्रवाई होगी। इस संकट को देखते हुए एनडीआरएफ व वायुसेना के हैलिकॉप्टरों की मदद ली जा रही है। वहीं आईआईटी रुड़की की मदद से कृत्रिम बारिश के विकल्प पर भी विचार किया जा रहा है। निश्चित रूप से हर साल जलने वाले सैकड़ों हेक्टयर वनों को आग से बचाने के लिये स्थायी उपायों की जरूरत महसूस की जा रही है। हमें वर्ष 2021 में हुए अग्निकांडों से सबक लेना चाहिए, जब आग लगने की करीब 2813 घटनाओं में करीब चार हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र को क्षति पहुंची थी। अग्निकांडों में आठ लोग मारे गये थे। रोचक तथ्य यह है कि कोविड-19 के दौर में मानवीय आवाजाही कम होने से आग लगने की सबसे कम घटनाएं हुई थीं। दरअसल, सरकारों की प्राथमिकता में पर्यावरण व वन संरक्षण शामिल ही नहीं हो पाया है। वनों के संरक्षण के लिये बजट बहुत कम है और आग बुझाने के पर्याप्त संसाधनों का अभाव है। पिछले दिनों अग्निकांड की घटनाओं के दौरान वनकर्मियों की ड्यूटी चुनाव के लिये लगाने पर भी सवाल उठे। इसके अलावा एक बात तो तय है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते वातावरण में तापमान बढ़ने से भी आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं। हमें बढ़ते तापमान के साथ प्रकृति संरक्षण के उपायों को बढ़ावा देना होगा। राज्य सरकार को एक सदी से अधिक समय से चली आ रही उस वन पंचायत व्यवस्था को मजबूत करना होगा, जो वन संरक्षण में सदैव सहायक रही है। साथ ही चीड़ के उन पेड़ों के बारे में भी सोचना होगा, जिन्हें अंग्रेज बाहर से लाए थे और उसकी सूखी पत्तियों की आग भड़काने में बड़ी भूमिका होती है। दरअसल, पलायन का दंश झेल रहे उत्तराखंड में कृषि व पशुधन के लिये घास-पात का उपयोग न होने से भी जंगलों में ज्वलनशील स्थितियां बनी हैं। वहीं वन कानून सख्त होने से ग्रामीणों के हितों की अनदेखी के चलते उनकी वनों के प्रति उदासीनता भी बढ़ी है। निस्संदेह, जंगलों की आग वन विभाग ग्रामीणों के सहयोग के बिना नहीं बुझा सकता।

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