समावेशी विकास को गति देते हुनरमंद
सतीश सिंह
मौजूदा समय में शिक्षा और कौशल विकास के बीच तालमेल नहीं दिख रहा है। शिक्षा के माध्यम से कौशल का विकास होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। हमारे अकादमिक कल-कारखानों से लाखों की संख्या में डॉक्टर, इंजीनियर, एमबीए आदि की भारी-भरकम डिग्रियां लेकर युवा बाहर निकल रहे हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश कौशलयुक्त एवं ज्ञानवान नहीं हैं। ऐसे लोग किसी भी कार्य को कुशलतापूर्वक अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते हैं, लेकिन होनहार के लिए रोजगार की कमी नहीं है।
तकनीकी एवं व्यावहारिक ज्ञान रखने वाले, भले ही डिग्री एवं अंग्रेजी के मामले में पीछे होते हैं, लेकिन वे हर किस्म की मुश्किलों को आसानी से सुलझा सकते हैं। किसी कार्य को करने के लिए डिग्री से ज्यादा कौशल की जरूरत होती है।
हमारे देश के स्कूल व कॉलेज के अध्यापकों का मानना है कि जो बच्चा लगातार हर परीक्षा में अव्वल आ रहा है, उसी को सिर्फ होनहार माना जा सकता है। इसमें दो मत नहीं है कि स्कूल-कॉलेजों में प्राप्त अच्छे अंक छात्र-छात्राओं की पढ़ाई के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं, किंतु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि हम इसे मेधावी होने या न होने का प्रमाण मानें। किसी विषय में कम या ज्यादा अंक प्राप्त करने से किसी भी छात्र को मेधावी या कमअक्ल नहीं माना जा सकता है। हर विषय में हर छात्र की रुचि का होना जरूरी नहीं है। महान वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन की रुचि केवल भौतिक विज्ञान में थी। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। लता मंगेशकर की भी गणित या विज्ञान में रुचि नहीं थी। सचिन तेंदुलकर या महेंद्र सिंह धोनी का अकादमिक रिकॉर्ड बहुत ही खराब रहा है, लेकिन वे अपने क्षेत्र में महान हैं। समाज में ऐसे जीनियसों के सैकड़ों उदाहरण हैं।
दूसरा पहलू यह है कि परीक्षा के समय में कोई छात्र बीमार हो सकता है या फिर उसकी रुचि पढ़ाई के प्रति गलत संगत के कारण शुरुआती दिनों में नहीं हो सकती है। अक्सर देखा जाता है कि ऐसे छात्र सही वक्त पर मेहनत करके हमेशा जागरूक रहने वाले छात्रों से जीवन की परीक्षा में बाजी मार लेते हैं। यहां फंडा ‘जब जागा तभी सवेरा’ वाला काम करता है। जिस छात्र के अंदर जीवन में सफलता हासिल करने की जिजीविषा जाग्रत हो जाती है वह हर कक्षा में तृतीय या द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण होने के बावजूद आईएएस की परीक्षा में शीर्ष 20 या 50 में स्थान बनाने में सफल हो जाते हैं।
नौकरी को यदि सफलता का पैमाना नहीं भी मानें तो भी ऐसा कुछ करने के लिए कृत संकल्पित छात्र जीवन की नई ऊंचाइयों को छूने में सफल हो जाता है। फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में दिखाये गए दर्शन को भी हम नकार नहीं सकते हैं। जरूरी नहीं कि हर बच्चा इंजीनियर या डॉक्टर बने। आज दुनिया में करने के लिए इतने सारे क्षेत्र हैं कि आप किसी बच्चे को कमतर नहीं मान सकते हैं। यह बस आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि आप किसे होनहार मानते हैं।
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने वर्ष, 2013 में पहली बार प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षा के अंकों को सार्वजनिक किया था, जिसमें 1004 अभ्यर्थी सफल हुए थे और शीर्ष स्थान प्राप्त करने वाले प्रत्याशी ने समग्र रूप 53 प्रतिशत अंक हासिल किये थे, जबकि अंतिम पायदान पर सफल रहने वाले अभ्यर्थी ने लिखित परीक्षा में 30 प्रतिशत अंक प्राप्त किये थे। पूर्व में यह धारणा थी कि यूपीएससी की परीक्षा में 75 से 80 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करने वाले अभ्यर्थी ही सफल होते हैं। यूपीएससी की बात छोड़ दें तो अभी भी बहुत सारी सरकारी एजेंसियां मसलन, राज्य सेवा आयोग, बैंक, रेलवे, कर्मचारी चयन आयोग आदि सफल उम्मीदवारों के अंकों को सार्वजनिक नहीं करते हैं।
एक तरफ दसवीं एवं बारहवीं की परीक्षा में छात्र 100 प्रतिशत नंबर ला रहे हैं, तो दूसरी तरफ यूपीएससी की परीक्षा में एक सामान्य वर्ग का उम्मीदवार लिखित परीक्षा में सिर्फ 30 प्रतिशत अंक प्राप्त कर अंतिम रूप से चयनित हो जाता है। सवाल का उठना लाज़िमी है कि क्या आजकल दसवीं और बारहवीं में 100 प्रतिशत अंक लाने वाले छात्र प्रतियोगी परीक्षा में शामिल नहीं हो रहे हैं या वे शामिल तो हो रहे हैं, पर उनकी होनहारता की धार कुंद पड़ गई है या फिर दसवीं और बारहवीं में दिये जा रहे 100 प्रतिशत अंक का पैमाना गलत है? हालात तो इतने बदतर हैं कि बैंक या अन्य निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों में कर्मचारियों की भर्ती हेतु आयोजित की जाने वाली प्रतियोगी परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले अभ्यर्थी 100 तो छोड़िए 60 प्रतिशत अंक भी स्कोर नहीं कर पाते हैं।
देश में इंजीनियरिंग, मेडिकल, आईटीआई एवं अन्य रोजगारपरक शिक्षा की शुरुआत जरूर की गई है, लेकिन इन पाठ्यक्रमों की सार्थकता नाममात्र की है। यहां से पढ़कर बाहर निकलने के बाद भी अधिकांश युवा कौशलहीन होते हैं, जबकि हुनरमंद युवा देश के समावेशी विकास को सुनिश्चित करने में हमेशा आगे रहते हैं।
हुनरमंद बेरोजगार नहीं रहता है। वह आसानी से अपने परिवार का भरण-पोषण कर लेता है। बढ़ई, लोहार, प्लम्बर, बिजली मिस्त्री, राज मिस्त्री, वाहन की मरम्मत करने वाले कारीगर आदि कभी भी भूखे नहीं मरते हैं। ये सरकार को कर भी देते हैं और देश के अर्थ चक्र को गतिमान भी रखते हैं। अस्तु, आज सरकार को डिग्री बांटने की जगह युवाओं को हुनरमंद बनाने पर ज़ोर देना चाहिए। उन्हें योग्यतानुसार रोजगार उपलब्ध कराने की दिशा में अग्रतर कार्रवाई करनी चाहिए, क्योंकि सभी के ज्ञान का स्तर एक समान नहीं होता है, पर निरंतर मेहनत सभी कर सकते हैं। मामले में अंकों की बाजीगीरी की तह तक पहुंचने की भी आवश्यकता है। अगर ऐसा होता है तो सरकार और लोग स्वतः कौशल विकास को प्राथमिकता देंगे।