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Single Screen Theater : ट्राईसिटी में सिंगल स्क्रीन सिनेमा ने तोड़ा दम

08:17 PM Feb 14, 2025 IST
single screen theater   ट्राईसिटी में सिंगल स्क्रीन सिनेमा ने तोड़ा दम
Single Screen Theater
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Single Screen Theater
Single Screen Theater
Single Screen Theater
Single Screen Theater, NEELAM CINEMA SEC-17

चंडीगढ़/ कविता राज संघाइक/ (ट्रिब्यून न्यूज सर्विस) : ‘जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में नजरों को हम बिछाएंगे (Single Screen Theater)। आधी सदी पहले यानी 1970 में आई राजकुमार की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का यह गीत तो आज भी लोगों की जुबां पर है। लेकिन जिन सिंगल स्क्रीन थियेटरों में राजकपूर सहित दूसरे अभिनेताओं की फिल्मों ने धूम मचाई थी, अब वे दम तोड़ चुके हैं। साठ और सत्तर यहां तक की 20वीं सदी के अंत तक के लोग इन सिनेमाघरों के सामने से गुजरते होंगे तो इनकी हालत देखकर उन्हें भी यह गीत याद आता होगा।

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Single Screen Theater : 1970 के दशक में चरम पर था क्रेज़

1970 ही वह दौर था, जब बॉलीवुड इंडस्ट्री लोगों के मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन बनकर उभरी। इसी दौर में देशभर में सिंगल स्क्रीन सिनेमा का कल्चर भी पला-बढ़ा। तब से लेकर आज तक भी देश के सबसे हसीन शहरों में शामिल चंडीगढ़ में भी एक-एक करके सिंगल स्क्रीन कल्चर ने उड़ान भरी। हालांकि ( however)  सिंगल स्क्रीन पर वक्त के थपेड़ों का तो असर नहीं पड़ा लेकिन ( as a result) टेक्नोलॉजी की मार जरूर सिनेमा जगत ने झेली। बड़े मल्टी-प्लेक्स के कल्चर के लोग इस कदर दीवाने हुए कि सिंगल स्क्रीन थियेटरों से मुंह मोड़ लिया।

ट्रायसिटी में थे 8 सिंगल स्क्रीन थियेटर

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दो राज्यों – पंजाब व हरियाणा की राजधानी होने के बावजूद केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ में सिंगल स्क्रीन थियेटर दम तोड़ चुके हैं। किसी वक्त (before) ट्राईसिटी में आठ सिनेमाघर हुआ करते थे और अपने दौर में सभी के सामने हाउसफुल के बोर्ड अकसर लगे लोगों ने देखे हैं। समय ने करवट बदली और लग्जरी सीटों वाले सेंट्रलाइज्ड एसी वाले मल्टी-प्लेक्स लोगों को रिझाने लगे। पिक्चर के साथ साउंड क्वालिटी सहित जरूरत की हर सुविधा मल्टी-प्लेक्स में मिलने लगी तो (consequently) लोग इनकी ओर बढ़ते चले गए।

जाने कहां गये वो दिन

भले ही (at the present time) मल्टी-प्लेक्स ने सुविधाएं दी हैं लेकिन सिंगल स्क्रीन थियेटर की टिकट के लिए लम्बी लाइनों में लगना, ब्लैक में टिकटें खरीदना सहित कई ऐसी यादें हैं, जो कभी मिट ना पाएंगी। बेशक, आज के युवाओं को इनका अनुभव ना हो, लेकिन पुराने लोग इस बदलाव को महसूस भी करते हैं और कहीं न कहीं वे इससे आहत भी हैं। उस जमाने में ( at that time) स्कूल-कॉलेज से बंक मारकर फिल्म देखने जाना, पॉकेट मनी को फिल्म के लिए इकट्ठा करना, घरवालों से झूठ बोलकर फिल्म के लिए पैसे लेना, ये कुछ ऐसी यादें हैं, जिनसे आज का युवा वाकिफ भी नहीं होगा।

सिंगल स्क्रीन सिनेमा का दौर (presently) लगभग खत्म हो चुका है। लेकिन 1950 के दशक में जब चंडीगढ़ शहर के लोगों का लोगों का रुपहले पर्दे से प्रथम साक्षात्कार हुआ तो मानो बवाल हो गया। इन सिनेमाघरों के आस-पास रौनक बिखरने लगी। शहर में एक के बाद एक सिनेमा हॉल खुलते रहे और उनके सामने दर्शकों की कतारें भी बदस्तूर बढ़ती रहीं।

तब चुनौती से कम नहीं था फिल्म देख पाना

पंजाब, हरियाणा और हिमाचल से सटे इस शहर के इन सिनेमाघरों तक पहुंचना और उनमें पिक्चर देखना तब किसी चुनौती से कम न होता। उस दौर में फिल्म के दीवाने बताते हैं कि सिनेमा देखने के लिए तब पूरा पंजाब टूट पड़ता था, तब इन्हें थियेटर कहा जाता था और इनके बाहर अक्सर लंबी कतारें लगी रहती थीं। हालांकि उस दौर में हर आम आदमी की पहुंच इन थियेटर्स तक नहीं थी। तब अभिजात्य वर्ग के लोग ही यहां पहुंचते थे।

फिर वह भी दौर आया जब आम आदमी भी 60 के दशक में रुपहले पर्दे पर नाचती-झूमती तस्वीरों को देखकर निहाल होने लगा।

Single Screen Theater: कहानी किरण की...

शहर का पहला सिनेमा हॉल हार्ट ऑफ द सिटी यानी सेक्टर-22 में ‘किरण’ के नाम से बना। पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने इसे बनवाया था। ये थिएटर अब हेरिटेज है। थिएटर को ली-कोर्बुजिए के सहयोगी मैक्सवेल फ्राई ने 1956 में डिजाइन किया था। यहां हमेशा सबसे ज़्यादा लोगों की भीड़ रही है। यह सबसे पुराना सेक्टर है और खुद में किसी छोटे शहर से कम भी नहीं। किसी दौर में किरण सिनेमा, सिने-प्रेमियों के साथ यूथ के लिए हॉट स्पॉट था।

हेरिटेज है किरण

2015 में किरण थिएटर को इसके एमेजिंग डिज़ाइन के लिए चंडीगढ़ मास्टर प्लान-2031 के तहत हेरिटेज का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा गया था। यह उन थिएटरों में से एक है, जिनमें टाइटेनिक (1997) और जुरासिक पार्क (1993) जैसी हॉलीवुड फ़िल्में दिखाईं। इसमें ही मदर इंडिया, रोटी कपड़ा और मकान, लव स्टोरी, मुकद्दर का सिकंदर ने दर्शकों के दिल जीते। यहां शोले के गब्बर और बसंती तांगे वाली ने भी कई हफ्ते खूब तालियां बटोरीं। किरण थियेटर का स्थान इसकी खासियत है क्योंकि यह खरीदारी के शौकीनों के लिए हॉट स्पॉट है।

तब लगा करती थी लम्बी कतारें

जब सिंगल स्क्रीन सिनेमा ट्राइसिटी का दिल हुआ करते थे, (at the same time) लोग टिकट बुक करने के लिए नीलम थिएटर और किरण थिएटर के सामने लंबी कतारों में खड़े होने से कतई नहीं हिचकिचाते थे। फिल्म देखने के लिए ब्लैक में टिकट भी खरीदा करते थे। ब्लैक टिकटों का भी अपना पूरा कारोबार रहा। मल्टीप्लेक्स संस्कृति के उदय के साथ, धीरे-धीरे इन स्टैंड-अलोन थिएटरों ने अपना आकर्षण खो दिया और लोगों को मल्टीप्लेक्स अधिक मनोरंजक और मूवी देखने के लिए सुविधाजनक लगने लगे।

युवाओं के मिलन  का केंद्र थे थियेटर

टिकट बुक करने की आसानी, बेहतर साउंड और शानदार पिक्चर क्वालिटी के साथ, लोग थोड़ा ज्यादा पैसा खर्च करने में नहीं हिचकिचा रहे थे। सिटी ब्यूटीफुल के सिंगल स्क्रीन थियेटर उस दौर में युवाओं की पसंदीदा पनाहगाह भी बने। कॉलेज, स्कूल या यूनिवर्सिटी से सीधे युवा यहां पहुंचते। चूंकि यहां शॉपिंग और खाने के अलावा आस-पास गेड़ी के लिये भी पर्याप्त स्पेस मिल जाता।

Single Screen Theater: आजादी के बाद बना ‘नीलम’

ट्राइसिटी के हेरिटेज थिएटर नीलम को चंडीगढ़ के सेक्टर-17 में 1950 के दशक में प्रताप सिंह कैरों (पंजाब के पूर्व सीएम) ने बनाया था। यह स्वतंत्रता के बाद बनने वाले पहले थिएटरों में से एक है। इसका डिजाइन और ढंचा अभी भी अपने मूल स्वरूप में है। इसे आज भी शहर की खूबसूरत इमारत के रूप में जाना जाता है। करीब 1000 लोगों के बैठने की क्षमता है वाले इस सिनेमा में आज भी शो चला रहा है। अब इसका जिम्मा कैरों परिवार के पास है।

नीलम रेनोवेशन के इंतजार में

गुरप्रताप सिंह कैरों इसे मल्टीप्लेक्स बनाने के लिए (significantly) प्रयासरत हैं। अगर अब किसी तरह की अड़चन नहीं आई तो इन्हीं गर्मियों में ‘नीलम’ भी इतिहास बन जाएगा। बेशक, इस शर्त के साथ मल्टी-प्लेक्स बनाने की मंजूर मिली है कि बाहर का डिजाइन पहले जैसा ही बनाना होगा। डबल पार्किंग बेसमेंट के अलावा तीन स्क्रीन, 60 के करीब शॉप्स, फूड कोर्ट और प्ले एरिया यहां बनाने का प्लान है।

टूट चुका केसी, आनंद और जगत के पर्दे भी गिरे

सेक्टर-17 में ही स्थित केसी थिएटर ने भी अपने जमाने में धाक जमाई। (as a matter of fact) अब इसकी बिल्डिंग गिराई जा चुकी है। हेरिटेज प्रॉपर्टी होने के चलते विवाद भी चल रहा है। आनंद सिनेमा और जगत थिएटर के पर्दे भी अब गिर चुके हैं। आनंद सिनेमा 80 के दशक की शुरूआत में बना। यह चंडीगढ़ का पहला ऐसा थियेटर है, जिसमें ‘रजिया सुल्तान’ फिल्म ही चल पाई। आनंद की यह पहली और आखिरी फिल्म बनकर रह गई।

एक ही वक्त में केसी में चलती थी दो फिल्में

यह पहला ऐसा थियेटर था, (equally important) जिसमें एक टाइम में दो फिल्में चल सकती थीं लेकिन यह खुद ही नहीं चल पाया। 2005 में केसी थिएटर के शो का भी अंत हो गया था, जब इसके मालिक अशोक कुमार ने इसे मल्टीप्लेक्स में बदलने के लिए यूटी प्रशासन के साथ लंबी लड़ाई लड़ी थी। परिसर को अंततः गिरा दिया गया था। जगत थिएटर ने छह साल की लड़ाई के बाद 2015 में खुद को मॉल में बदल दिया, जहां रंगमंच बदस्तूर बिक रहा है।

Single Screen Theater: बतरा की व्यथा

अस्सी के दशक तक (given these points)  ट्राईसिटी में 8 थियेटर हो चुके थे । 11 जुलाई, 1980 में सेक्टर-37 में बने ट्राइसिटी के पुराने थिएटरों में से एक बतरा थिएटर एक समय में रौनक से भरा हुआ था। लंबे अरसे तक स्टारडम का आनंद लेता रहा। थियेटर पर जब पहली फिल्म ‘स्वयंवर’ प्रदर्शित हुई तो शहर उमड़ पड़ा। ‘थोड़ी सी बेवफाई ने खूब कमाई करवाई।

बतरा के मैनेजर विनय गंभीर कहते हैं - हर शुक्रवार-शनिवार को लोग टिकट खरीदने के लिए लंबी कतारों में लगते थे। 1443 लोगों के बैठने की क्षमता वाले इस थियेटर की कैंटीन के गर्म और ताज़ा स्नैक्स भी लोगों को पसंद आते थे।

बतरा में सबसे अधिक जुटती थी भीड़

पंजाब यूनिवर्सिटी से नजदीकी का भी फायदा बतरा थियेटर को मिलता था। यहां 1992 में ‘जो जीता वहीं सिकंदर’ के साथ जब चुलबुली आयशा जुल्का और आमिर खान ने बड़े पर्दे पर ‘पहला नशा-पहला खुमार’ के साथ एंट्री मारी तो तहलका मच गया। यहां कई फिल्में ‘सिल्वर जुबली’ के बाद ही उतरी। सलमान खान की ‘मैंने प्यार किया’ ने भी लगातार 25 हफ्ते यहां धुआंधार बिजनेस किया। 2000 के दशक में ‘कहो न प्यार है’ ने भी सिल्वर जुबली का खिताब जीता। पंजाबी फिल्म ‘माहौल ठीक है भी 15 हफ्ते चली। विनय गंभीर बताते हैं कि बीते कई सालों से थिएटर बंद है। अब यहां भी मल्टी-प्लेक्स बनाने का प्रस्ताव है।

‘निर्माण’ का निर्माण

सेक्टर-32 स्थित ‘निर्माण’ थिएटर कभी कॉलेज के छात्रों के लिए एक आकर्षण का केंद्र था। इसके बेसमेंट में कई तरह की प्रदर्शनियां भी आयोजित होती रहीं। लोग हमेशा निर्माण थिएटर चंडीगढ़ में मूवी देखने के लिए उत्सुक रहते थे। 2012 में लगी भीषण आग ने न केवल इस थिएटर के एक हिस्से को जला दिया बल्कि कई लोगों के मनोरंजन पर भी पूर्ण विराम लगा दिया। थिएटर में कोई भी फिल्म दिखाए हुए 13 साल बीत गए।

फिलहाल इसे ( in order to) मल्टीप्लेक्स में बदलने की कोई योजना नज़र नहीं आती। बाद में दूर होते दर्शकों की वजह से एक-एक कर किरण, केसी, पंचकूला में सूरज और मोहाली में बस्सी के अलावा बत्तरा भी बंद होते गए। ढिल्लों ने फन रिपब्लिक तो जगत और पिकेडली ने मल्टीप्लेक्स का चोला पहन लिया।

Single Screen Theater: भोजपुरी को पनाह

विभिन्न प्रांतीय जनसंख्या को समेटे चंडीगढ़ के मिजाज को देखते हुए यहां पंजाबी सिनेमा को भी स्थान मिला तो हॉलीवुड और बाद में भोजपुरी सिनेमा के लिए भी दिल का दरवाजा खुला। नीलम, बतरा, केसी और निर्माण के अलावा किरण में शनिवार और रविवार को पंजाबी फिल्मों के शो चला करते थे। मोहाली के बस्सी थियेटर को भोजपुरी सिनेमा को तव्ज्जो देने के लिये जाना जाता था। बस्सी ने 90 और 2000 के दशक में भोजपुरी फिल्में प्रदर्शित कर गरीब और प्रवासी मजदूर वर्ग के बीच मजबूत घुसपैठ की। बाद में दूसरे थियेटर्स भी इस राह निकल पड़े।

पंजाबी सिनेमा को मिला आधार

‘नानक नाम जहाज़ है’ (1969) (for instance) और ‘नानक दुखिया सब संसार’ (1970) जैसी फ़िल्मों ने सिनेमाई परिदृश्य पर सिख धर्म और पंजाबी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को दर्शाया। ठीक 10 साल बाद 1980 के दशक नें पंजाबी सिनेमा का स्वर्ण युग लौटा। इसमें गुरदास मान जैसे दिग्गज अभिनेता और मनमोहन सिंह और वीरेंद्र जैसे फिल्म निर्माता उभरे। बतरा में ‘सानू मान बतना द’ खूब चली। ‘लॉन्ग दा लश्कारा’ (1986) और ‘मढ़ी दा दीवा’ (1989) जैसी फिल्में पंजाबी सिनेमा में प्रतिष्ठित मील के पत्थर बन गईं, जिन्होंने पंजाबी संस्कृति और परंपराओं की समृद्धि को प्रदर्शित किया।

बस्सी टॉकीज में लगती थी भोजपुरी फिल्में

अपने सुनहरे दिनों में (first thing to remember) केसी सिनेमा और मोहाली का बस्सी टॉकीज अपने आर्ट डेको डिजाइन, सनबर्स्ट मोज़ेक फर्श और प्रभावशाली संरचना के लिए जानी जाती थी। लेकिन अब ये खंडहर में बदल चुके हैं। लेकिन इसकी भव्यता के निशान उन जगहों पर दिखाई देते हैं, जो समय की मार से बच गए हैं। ट्राईसिटी के ये थिएटर करीब डेढ दशक से बंद हैं, लेकिन धूल भरे कोनों और टूटी फूटी दीवारों के ऊपर यादगार ख़जाना मिलता है। खंडहर कह रहे हैं कि इमारत कभी बुलंद थी।

Single Screen Theater: ओटीटी खतरे की घंटी

सिंगल स्क्रीन की जगह (another key point) मल्टी-प्लेक्स का दौर चल रहा है। लेकिन अब मल्टी-प्लेक्स को भी चुनौती मिल रही है। यह चुनौती मिल रही है ओटीटी से। इस पर हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी सहित एक दर्जन से अधिक भाषाओं में वेब सीरीज, फिल्में व दूसरे मनोरंजन के कार्यक्रम उपलब्ध हैं। घर बैठे परिवार के साथ मनोरंजन करने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। ये प्लेटफार्म मोबाइल पर भी उपलब्ध हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में ओटीटी प्लेटफार्म भी मल्टी-प्लेक्स कल्चर के लिए बड़ी चुनौती बनने का काम कर सकते हैं।

दिखेगी पुरानी बिल्डिंग की झलक

आर्किटेक्ट विनोद जोशी के मुतबाकि ( according to) , केसी और किरण का डिजाइन उनकी ओर से बनाया है। इन मल्टीप्लेक्स के बाहरी बिल्डिंग के डिजाइन को पुरानी से मिलता-जुलता ही बनाया है। नीलम, केसी की इंटीरियर बिल्डिंग को नए ढांचे में बदला है। इसे नए परिवेश और मांग को ध्यान में रखकर बनाया गया है। किरण सिनेमा निजी प्रॉपर्टी के बावजूद हेरिटेज बिल्डिंग में आने के बाद उसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है। हालांकि प्रशासन की ओर से उस बिल्डिंग का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है ।

Single Screen Theater: सेक्टर-17 में लौटेगी रौनक

नीलम सिनेमा और केसी थिएटर के मल्टीप्लेक्स बनने के बाद (important to realize) शहर का दिल कहे जाने वाले सेक्टर-17 में फिर रौनक लौटेगी। चूंकि सिंगल स्क्रीन की वजह से इन थिएटरों में लोगों का आना कम हो गया था। अब लोगों के लिए सेक्टर-17 नई सुविधाओं के साथ आकर्षण का केंद्र बन जाएगा।

प्रशासन की ओर से (presently) केसी सिनेमा और नीलम के मल्टीप्लेक्स डिजाइन को अनुमति दी जा चुकी है। किरण सिनेमा की बिल्डिंग हेरिटेज है। उम्मीद है कि पॉलिसी में संशोधन होने पर उसमें कुछ बदलाव की अनुमति दी जा सकती है।

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मल्टीप्लेक्स की भीड़ में गुम हुए पुराने सिनेमाघर

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