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समझौते की सार्थकता

06:30 AM Dec 15, 2023 IST

विश्वव्यापी जलवायु संकट के बीच दुबई में आयोजित जलवायु परिवर्तन केंद्रित सीओपी-28 में भले ही कोई क्रांतिकारी फैसला ग्लोबल वार्मिंग तापमान को नियंत्रण के बाबत न लिया जा सका हो, लेकिन दुनिया के लगभग दो सौ देश जीवाश्म ईंधन, मसलन कोयले, तेल और गैस का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म करने पर जरूर राजी हुए हैं। हालांकि, अभी भी तमाम विकासशील देशों में कई तरह की चिंताएं हैं कि समझौते के व्यापक प्रावधान क्या होंगे और उनकी आर्थिक विकास में आने वाली बाधाओं का मुकाबला कैसे होगा। लेकिन इसके बावजूद सम्मेलन में किसी मुद्दे पर सहमति बनना एक उम्मीद जरूर जगाती है। कुछ देश उम्मीद लगाए बैठे थे कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग को खत्म करने के लिए किसी समयबद्ध कार्यक्रम की रूपरेखा तय होगी। वे इस बदलाव की राह में आगे बढ़ाने के वायदे से संतुष्ट नजर नहीं आए। विडंबना यह है कि संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित इस जलवायु सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन को खत्म करने का विरोध ओपेक देशों के सदस्य ही कर रहे थे। वैसे भी जीवाश्म ईंधन से अर्थव्यवस्था व अंतर्राष्ट्रीय राजनीति चलाने वाले देशों से ज्यादा उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इसके विपरीत तेल उत्पादक देश कार्बन जमा करने की तकनीकों को बढ़ावा देने पर बल देते रहे। इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उम्मीद थी कि दुनिया के संपन्न देश जीवाश्म ईंधन समाप्त करने के वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करें, लेकिन वैसा होता नजर नहीं आया। इसकी वजह यह थी कि ताकतवर राष्ट्रों ने दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन करके अपना औद्योगिकीकरण किया। निस्संदेह, उसकी ग्लोबल वार्मिंग में बड़ी भूमिका रही है। जब विकासशील देशों के विकास ने गति पकड़ी तो उन्हें पर्यावरण संकट पर जीवाश्म ईंधनों का उपयोग करने से रोका जाने लगा। ऐसे समय पर जब पश्चिमी देश पहले ही अपने जीवाश्म ईंधन का अधिकतम उपयोग कर चुके हैं, विकासशील देशों के साथ बाध्यकारी शर्तें अन्यायपूर्ण ही कही जाएंगी।
दरअसल, इस समस्या का एक पहलू यह भी है कि क्षतिपूर्ति के तौर पर विकसित देश विकासशील देशों को पर्याप्त वित्तीय सहायता देने को राजी नहीं हुए हैं। तीसरी दुनिया के देश जीवाश्म ईंधन के विकल्प में जिस नवीकरणीय ऊर्जा का प्रयोग करेंगे, उसके संबल को दी जाने वाली रकम बेहद कम है। इसके लिये सत्तर करोड़ डॉलर का फंड नाकाफी है। निस्संदेह, जलवायु परिर्वतन के प्रभावों को कम करने की लड़ाई में दुनिया के गरीब मुल्कों को बड़ी पूंजी की जरूरत होगी। कहा जा सकता है कि दुबई में संपन्न पर्यावरण सम्मेलन उन लक्ष्यों तक नहीं पहुंचा है, जहां तक पहुंचने की उम्मीद लगाई गई थी। सम्मेलन की सफलता इस बात पर निर्भर करती कि विकासशील व गरीब मुल्कों को नवीकरणीय ऊर्जा के प्रतिस्थापन के लिये कितनी ठोस आर्थिक मदद का प्रावधान किया गया है। साथ ही उन देशों की मदद के लिये अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने कोई ठोस प्रयास नहीं किये जो ग्लोबल वार्मिंग के चरम का सामना करते हुए, भयावह आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। दुनिया के तमाम मुल्क बाढ़ व सूखे की त्रासदी झेल रहे हैं। जिनमें उत्तरी पूर्वी अफ्रीकी देशों की स्थिति ज्यादा ही खराब है। इनमें कई देश ऐसे हैं जो कई सालों से निरंतर सूखे की भयावह स्थितियों का सामना कर रहे हैं। दरअसल, हमारे दरवाजे पर दस्तक दे चुके ग्लोबल वार्मिंग संकट के मुकाबले के लिये विकसित देशों व दुनिया की वैज्ञानिक बिरादरी को ठोस प्रयास करने की जरूरत है, ताकि भूख व विस्थापन के संकट का मुकाबला किया जाए। दुनिया की खाद्य शृंखला को बचाने की भी सख्त जरूरत है। साथ ही उन सस्ती तकनीकों व उपकरणों की जरूरत गरीब मुल्कों को है जो 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग तीन गुना बढ़ाने में सहायक हों। साथ ही ग्लोबल वार्मिंग में बड़ी भूमिका निभाने वाली मीथेन गैस का उत्सर्जन कम करना भी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। यह सुखद है कि तीन दर्जन से अधिक गैस-तेल उत्पादक कंपनियां मीथेन उत्सर्जन कम करने पर सहमत हुई हैं। साथ ही मानवता की रक्षा के लिये ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव से बढ़ने वाली बीमारियों पर नियंत्रण व प्रभावित देशों की मदद की भी जरूरत है।

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