श्रावणी : श्रवण एवं मनन को समर्पित
आचार्य दीप चन्द भारद्वाज
वैदिक ग्रंथ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार माने गए हैं। वैदिक ग्रंथों के चिंतन-मनन और उनके श्रेष्ठ आदर्शों को जीवन में आत्मसात् करने से मनुष्य भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करता है। ज्योतिष के अनुसार इस दिन श्रवण नक्षत्र होता है जिससे पूर्णिमा का संयोग होने से श्रावणी कही जाती है। हमारी सनातन संस्कृति की स्वर्णिम पर्वों, उत्सवों की परंपरा भारतीय समाज में जीवंतता तथा जागृति का समावेश करती है। सावन की पूर्णिमा को ज्ञान की साधना का पर्व माना गया है। यह आध्यात्मिक ऊर्जा को जागृत करने का पावन उत्सव है।
मनुस्मृति में इस दिन को उपाकर्म करने का दिन कहा गया है। श्रावणी पूर्णिमा एक मास के आध्यात्मिक ज्ञान रूपी यज्ञ की पूर्णाहुति है। श्रावणी उपाकर्म के अंतर्गत वेदों के श्रवण-मनन का विशेष महत्व है। श्रावण मास वर्षा ऋतु का समय होता है। प्राचीन काल में लोग श्रावण मास में वर्षा के कारण घरों पर रहकर वैदिक शास्त्रों का श्रवण किया करते थे। अपने आध्यात्मिक ज्ञान को बढ़ाते थे। प्राचीन काल में आज की तरह सभी ग्रंथ मुद्रित रूप में सबको सुलभ नहीं थे अतः निकटवर्ती आश्रमों में जाकर रहते थे। वहां वैदिक विद्वानों से वेद के उपदेशों का श्रवण करते थे। ऋषि, मुनियों, योगियों के सान्निध्य में रहकर उनके मुखारविंद से आध्यात्मिक शास्त्रों के गूढ़ तत्वों का श्रवण करना इस श्रावणी पर्व का मुख्य ध्येय होता था। इसे ऋषि तर्पण का नाम भी दिया जाता है। तर्पण का अर्थ है ज्ञान और सत्य विद्या के मर्मज्ञ ऋषियों को संतुष्ट करना, जिनसे हमें वैदिक रहस्य को जानने व समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्राचीन काल में गुरुकुलों में इसी दिन से शिक्षण सत्र का आरंभ होता था। इस दिन छात्र गुरुकुल में प्रवेश लेते थे जिनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ उन्हें ऋषिऋण, देवऋण, पितृऋण का द्योतक यज्ञोपवीत दिया जाता था।
ज्ञान से ही विकास का आरंभ होता है और अज्ञान ही अवनति का मूल है। यह पर्व हमें ऋषि परंपरा के अनुकरण की प्रेरणा प्रदान करता है। इस अवसर पर इंद्रियों के संयम एवं सदाचरण के आध्यात्मिक पथ पर चलने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस श्रावणी उपक्रम के अंतर्गत वेदों के श्रवण का विशेष महत्व है। ज्ञान का प्रकाश करने वाले दिव्य गुरुओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का समय है जो हमें श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षा सूत्र देकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। आशीर्वाद के रूप में गुरु शिष्यों को रक्षा कवच के रूप में सूत्र बांधते हैं।