पितरों के पुण्य स्मरण का समय श्राद्धपक्ष
डॉ. पवन शर्मा
पितृ पक्ष का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व होता है। पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष के नाम से भी जाना जाता है। ‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्’ (जो श्रद्धा से किया जाए, वह श्राद्ध है) अर्थात् प्रेत और पित्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों, परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना है। ब्रह्मपुराण में उल्लेखित है कि देश, काल और पात्र में श्रद्धा द्वारा जो भोजन पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मणों को दिया जाए, उसे श्राद्ध कहते हैं। पितृ पक्ष में पितरों का श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। इस पक्ष में विधि-विधान से पितर संबंधित कार्य करने से पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है। पितृ (श्राद्ध) पक्ष भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से प्रारंभ होकर आश्विन मास की अमावस्या तिथि तक पितृ पक्ष रहता है। श्राद्ध पक्ष के 16 दिन पितरों को समर्पित होतें हैं। इस बार पितृपक्ष का प्रारंभ 29 सितंबर को होगा और पितृ अमावस्या 14 अक्तूबर को होगी। यानी कि पितृ पक्ष का आरंभ 29 सितंबर को होगा और विसर्जन 14 अक्तूबर को हो होगा। इस दौरान हर एक दिन तर्पण और पिंडदान के नजरिए से खास होता है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान पित्तर संबंधित कार्य करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। पितृ पक्ष में मृत्यु की तिथि के अनुसार श्राद्ध किया जाता है। अगर किसी मृत व्यक्ति की तिथि ज्ञात न हो तो ऐसी स्थिति में अमावस्या तिथि पर श्राद्ध किया जाता है। इस दिन सर्वपितृ श्राद्ध योग माना जाता है। हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है।
पितृ पक्ष का महत्व : पितृ पक्ष में कोई भी शुभ कार्य करने की मनाही होती है और ऐसा माना जाता है कि पितृ पक्ष में खुशी का कोई भी कार्य करने से पितरों की आत्मा को कष्ट होता है। इस दौरान शादी, विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश, अन्य शुभ कार्य या फिर कोई भी नई चीज खरीदना शास्त्रों में वर्जित माना गया है। इसके साथ ही यह भी माना जाता है कि जिन लोगों की कुंडली में पितृ दोष वे पितृ पक्ष में पितरों को प्रसन्न करने के कुछ विशेष उपाय करें तो उनके ये दोष दूर किए जा सकते हैं। पितर दोष से मुक्ति के लिए इस पक्ष में श्राद्ध, तर्पण करना शुभ होता है। पितृ पक्ष में पितरों के निमित्त पिंडदान करने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। कुछ लोग काशी और गया जाकर अपने पितरों का पिंडदान करते हैं। पितृ पक्ष में ब्रह्म भोज करवाया जाता है और पितरों के निमित्त दान-पुण्य किया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि पितृ पक्ष में श्राद्ध न करने से पितरों की आत्मा तृप्त नहीं होती है और उन्हें शांति नहीं मिलती है। जिस दिन श्राद्ध हो उस दिन ब्राह्मणों को भोज करवाना चाहिए। भोजन के बाद दान दक्षिणा देकर भी उन्हें संतुष्ट करें। श्राद्ध पूजा दोपहर के समय शुरू करनी चाहिए। मान्यता है कि पितृ पक्ष में दान, तर्पण व श्राद्ध कर्म करने से पितर प्रसन्न होते है। श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत प्राणी का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। हाथों में कुश की पैंती (उंगली में पहनने के लिए कुश का अंगूठी जैसा आकार बनाना) डालकर काले तिल से मिले हुए जल से पितरों को तर्पण किया जाता है।
मान्यता है कि एक तिल का दान बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस रिवाज को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं। कुछ लोग पितर पक्ष में रोजाना अपने पितरों के लिए तर्पण करते हैं तो कुछ लोग श्राद्ध की तिथियों पर पितरों के नाम से ब्राह्मणों को भोजन करवाकर श्राद्ध करते हैं। पितृ तर्पण से प्रसन्न होकर पितर अपने परिजनों को सुखी और संपन्न रहने का आशीर्वाद देते हैं।