लघुकथा
विभा रश्मि
डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची शांत नहीं हुई। कित्ते पैसे हुए इन मुई लाल-पीली गोलियों के...
दाम सुनकर चच्ची ने बुर्के का पर्दा उलट दिया ‘इत्ती ज़रा-ज़रा सी गोलियों के दो सौ रुपइए लूट मच रही है लूट, अरी तू पैदा क्यों हुई मरी...!’
पलट कर चच्ची ने शन्नो का झोंटा खींच दिया, वह ‘उई अम्मा...’ कह, कराह कर रोने लगी।
चच्ची की आंखों से आग बरस रही थी। बेटी की तरफ़ मुड़ कर वह फिर चीख़ने लगीं, ‘ज़ीनत की बच्ची से वसूलूंगी सारे पैसे... वहीं मरने आयी थी नल पे.. झगड़ा मुझसे था... बाल्टी खेंच मारी शन्नो के... नीचे के दांत तो बिल्कुल गये। ज़रा-सी बच्ची बिलबिला गयी... कित्ता जुलम।’
‘अरी चोप्प कर भली मानस, सड़क पर च्यों गला फाड़े है।’
सकीना चच्ची को खींचकर सड़क पर ले आयी। उसका बढ़ा हुआ हाथ झटक कर चच्ची बोली, ‘मैं च्यों चुप्प करूं! क्या पता था, मेरा बदला चुड़ैल औलाद से निकालेगी, अब तो ऑपरेशन होगा। कै दी है... हज़ार रुपये की चपत पड़ेगी... खांसे लाऊं... डाका डालूं या कुएं में कूद जाऊं...?’
चच्ची फिर शुरू हो गयी ‘ऐसे ही हमारे चूल्हे औंधे पड़े हैं, उनके चूल्हें तो मटियाले हो रहे हैं... उनके ख़सम जवान बैठे हैं... ला-लाकर खिला देंगे...।
भाग तो हमारे ही फूटने थे, कौन लायेगा कमा कर, भरी जवानी में शराब की लत ले धंसी! अपने शराबी खाविंद को याद कर वो गालियां देती रही।’
शन्नो डर कर सकीना लिपट गयी। उसकी ललछोई आंखों में भय छिपा बैठा था। धोबियों का मुहल्ला पार कर के वो अपनी सरहद में पहुंच गयी थी। ओसारे में खाट पर दवाइयों को पटक कर चच्ची जीनत से लड़ने चल पड़ीं।
शन्नो को लगा इस बार वह अपने दांत भी तुड़वा कर लौटेगी...। अकेली जायेगी, ज़ीनत का पूरा कुनबा टूट पड़ेगा।
अम्मी के ओझल होते ही शन्नो दर्द के मारे रो पड़ी।
उसके चोट से टूटे दांत कम, भूख से बिलबिलाती आंतें ज्यादा दुख रही थीं, उसने सोचा, बाजी की तरह वह भी अंधे हुए में कूदकर जान दे देगी...। पर अम्मी कह रही थीं कि कुआं बहुत गहरा...।