लघुकथाएं
खुसर-पुसर
अशोक जैन
‘साहिबदीन!’
‘सलाम मालिक।’ मजदूर ने गर्दन झुका दी।
तभी पास खड़े मुंशी के होंठ सेठजी के कानों तक पहुंच कर कुछ बुदबुदाये और सेठजी के होंठ गोल हो गये। उन्होंने प्रतिक्रिया दी, ‘अच्छा...!!’
‘तुम अपनी बीवी के काम के लिए कह रहे थे क्या?’
‘हां, मालिक।’
‘तो उसे हवेली क्यों नहीं भेज देते?’
‘अच्छा, मालिक।’
‘कोई न कोई काम निकल ही जाएगा।’
‘आप मेहरबान हैं मालिक।’
वह चला गया। पास में ही बैठे मजदूरों में खुसर-पुसर हुई।
‘बेचारा साहिबदीन!!’
शाम को सेठजी हवेली के खाली कमरों में आवाज़ें लगाते रहे।
उनकी और पत्नी की संयुक्त फोटो से पत्नी का चित्र गायब था।
अगले रोज़ से साहिबदीन ड्यूटी पर नहीं आया।
दूरदर्शिता
रेखा शाह आरबी
‘पापा आपने शायद ध्यान से सुना नहीं, मुझे दस नहीं! पन्द्रह लाख रुपयों की जरूरत है।’
‘बेटा मैंने बहुत ध्यान से तुम्हारी बातें सुनी, तुम्हें फ्लैट लेने के लिए पन्द्रह लाख रुपये कम पड़ रहे हैं।’
‘तो पापा आपने दस लाख की रकम चेक में क्यों भरी है..़ जबकि और भी पैसे आपके खाते में पड़े हुए हैं?’
‘हां बेटा... मैं तुम्हें दस लाख की रकम ही दे सकता हूं... और बाकी के बचे पैसे मैंने हम दोनों पति-पत्नी के आकस्मिक हारी-बीमारी के लिए बचा कर रखे हैं।’
‘लेकिन पापा आपको यह सब सोचने और बचाने की क्या जरूरत है! आपके पास तो दो कमाऊ बेटे हैं।’
‘नहीं बेटा... बहुत जरूरत है... मैं नहीं चाहता कि हम पति-पत्नी के बीमार पड़ने पर मेरे बेटे आधा-आधा खर्च का चंदा लगाकर मेरा इलाज करवाने की जिम्मेदारी उठाए...।’ रमेश जी ने बहुत ही दृढ़तापूर्वक चेक देते हुए बोले।
रमेश जी के पास ही बैठे उनके बचपन के मित्र सुरेश जी रमेश जी की दूरदर्शिता देखकर उनकी मन ही मन प्रशंसा करने लगे।