लघुकथाएं
निर्मम खुशी
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
‘अरे, सुन! तुझे एक खुशखबरी सुनाती हूं।’ फोन पर एक चहकती हुई आवाज़ आई।
‘हां, बता न।’ दूसरी ओर भी बेसब्र आवाज़ थी।
‘तुझे बताया था न कि मेरी मेड काम छोड़ रही है!’
‘हां, तुम बता रही थी कि उसकी शादी होने वाली है।’
‘हां वही! मेरा तो बी.पी. बढ़ गया था यार, कैसे मैनेज करूंगी? इस दिसंबर की ठंड में! कोई मिल भी नहीं रही थी।’
‘कोई नई मिल गयी क्या? तेरी आवाज तो बड़ी खुश लग रही है!’
‘अरे, सुन तो। आज बोल गयी है कि वह काम नहीं छोड़ेगी, करती रहेगी।’
‘क्यों?’ चौंकते हुए पूछा।
‘शादी टूट गयी।’
‘ओह बेचारी!’
‘तू क्यों दुखी हो रही है। इनका क्या? आज इससे, कल उससे। मेरी तो जान बच गयी इस कड़ाके की ठंड में।’ आवाज़ ठहाके में बदल गयी।
‘अच्छा रखती हूं आज आराम से मेनिक्योर- पेडीक्योर करवाऊंगी।’
और फोन कट गया।
अनुकम्पा
मोहन राजेश
रेलवे से रिटायर हुए थे गिरधारी बाबू । दफ्तर के सहकर्मी ढोल-धमाके के साथ जुलूस की शक्ल में उन्हें घर छोड़ने आए...
शाम ढले ढाई-तीन सौ लोगों का खाना था, ऐसा लग रहा था मानो बरात ज़ीम रही हो।
सब कुछ ठीक-ठाक निपट गया। फूलों की मालाओं के बोझ तले दबे गिरधारी बाबू को पहली बार अपने ‘कुछ’ होने का अहसास हुआ... किंतु यह अहसास इतना भारी पड़ा कि रात सोये तो सोते ही रह गए।
सुबह डॉक्टर ने पुष्टि कर दी कि साइलेंट हार्ट अटैक था। सारे घर में कोहराम मच गया। बाहर से आए रिश्तेदार भी इस सुकून के साथ शवयात्रा में शरीक हो गए कि अच्छा रहा, दुबारा नहीं आना पड़ेगा।
रामप्यारी की रुलाई समझी जा सकती थी, बुढ़ापे में पति की विछोह वेदना... पर बेटे बिरजू का हाल देखकर सभी रिश्तेदार करुणार्द हो उठे । सभी ढांढस बंधा रहे थे पर बिरजू की रुलाई का बांध टूट चुका था और उसके आंसू के सैलाब से पूरा घर तर-बतर हो चुका था ।
‘छोरे को पिता की मौत का गहरा सदमा लगा है’ सभी लोग यही कुछ बुदबुदा रहे थे।
तीए की बैठक के बाद ग़म गलत करने के लिए बिरजू भी बोतल खोल कर दोस्तों के साथ बैठा तो अनायास ही कह उठा : ‘यार माधो बाऊजी दो-चार दिन पहले ही मर जाते तो कितना अच्छा रहता, रिटायरमेंट की पार्टी का पचास-साठ हजार का खर्चा भी बच जाता और मुझे उनकी जगह रेलवे में अनुकंपा नियुक्ति भी मिल जाती। इस बेरोजगारी से तो छुटकारा मिलता यार...’
खाली गिलास फर्श पर पटकते हुए माधो सोच रहा था कि-- पापाजी भी अगले साल रिटायर होने को हैं,
क्या मुझ पर इतनी भी ‘अनुकंपा’ नहीं कर सकते...!
छांव
विभा रश्मि
स्वर्ण मंदिर में सरोवर किनारे दुख-हरनी बेरी के नीचे पहुंचते ही उसकी आंखें भर आयीं। बीजी के साथ वो छुटपन से ही हरमंदर साहब आता रहता था। नेत्र मूंद वो बुदबुदा उठा...
‘सच्चे बादशाह! वाहे गुरु! हुण जादा इम्तेहान न लौ। बीजी दे बिछुड़ने दा दुख बर्दाश्त करन दी मैन्नु शक्ति दो।’
उसका मन आज मंदिर दर्शन कर शांत हो गया था।
ड्योढ़ी पर मत्था टेकने के बाद उसने बीजी के स्नेह की गर्मास देता उनका पुराना शाॅल, कस कर अपने चारों तरफ़ लपेट लिया। उसे लगा, वो प्यारी बीजी की ममता की बांहों में लिपटा हुआ था।
बीजी के कमरे में रखीं उनसे जुड़ी सभी वस्तुएं, कपड़े-लत्ते आदि उनके जाने के बाद जरूरतमंदों में बांट दिये गये थे।
बीजी की निशानी, इस शाॅल को वो किसी को नहीं देगा। शाॅल के रेशे-रेशे में बीजी की ममता का स्पर्श पिरा हुआ था।
आज रब की ड्योढ़ी पार करते हुए उसका मन शांत था। वो भीगी पलकों से धुंधलाए मंज़र को साफ़ कर आगे बढ़ा। बीजी की बांहों की गर्माहट का अहसास कराता उनका शाॅल, उसने कस कर लपेट लिया था।
‘ठंड नाल मैं ठुरठुर कर रयां।’
एक झुर्रीदार बूढ़े ने ठंड से कांपते स्वर में पीछे से पुकारा।
वो पलटा। आंखें चार हुईं तो कुछ क्षण ठिठका-सा खड़ा रह गया। बीजी का हाथ सिर पर होने का अहसास। उनके मीठे आशीर्वचन कानों में गूंज उठे- ‘जिंदा रै पुत्तर।’
उसे लगा फकीर के बूढ़े चेहरे पर बीजी का चेहरा चस्पा हो गया था ।
बीजी की आख़िरी निशानी उनका शाॅल, उसने उतार कर ठंड से कांपते फकीर के कंधों को स्पर्श करते हुए लपेट दिया।