लघुकथाएं
बलराम अग्रवाल
आम आदमी
‘कभी मुर्गा बने हो?’
‘मतलब, कि आपको मैं आदमी नजर आ रहा हूं!’
‘मजाक नहीं, सीरियसली बताओ।’
‘सीरियसली ही बता रहा हूं। जूनियर लेवल तक करीब-करीब रोजाना बना हूं।’
‘फिर भी नहीं सुधरे?’
‘सर, सुधरने के लिए मुर्गे से आदमी बनना पड़ता है। वह मौका कभी मिला ही नहीं।’
‘क्यों?’
‘घर में पिताजी और स्कूल में मास्टरजी, दोनों को पता नहीं क्या खूबी नजर आती थी मुझमें! देखते ही बस एक आदेश—मुर्गा बन जा! मास्टरजी ने एक बार मुर्गा बनाया ही था कि पीरियड खत्म हो गया। जल्दबाजी में ‘खड़ा होजा’ कहना भूलकर कक्षा से निकल गए! बस, तभी से मुर्गा बना घूम रहा हूं। जिसके हाथ लग जाता हूं, वही काट लेता है!’
‘तुम्हारा खुद का पेट कैसे पलता है?’
‘जिसे काटना होता है, वही चुग्गा भी डालता है सर! नो प्राब्लम।’
पार्टी-लाइन
‘तुमने ‘गरीबों और वंचितों को न्याय दिलाने के’ उसके कदम की तारीफ क्यों की?’
‘वह कदम था ही तारीफ के काबिल।’
‘विपक्षी का कोई भी कदम तारीफ के काबिल कभी नहीं होता। यही आलाकमान का ऑर्डर और पार्टी-लाइन है।’
‘गलती हो गई। आगे से ध्यान रखूंगा।’
‘जाकर बयान सुधारो अपना, हाईकमान का आदेश है।’
‘कह तो दिया—आगे से ध्यान रखूंगा।’
‘आगे से नहीं, अभी से! पटरी पर नहीं चल सकते तो किनारे हो जाओ—अभी, इसी वक्त!’
गंगा में गंदगी
‘गंगा की सफाई का अभियान तो आपके नेता ने चलाया था?’
‘बिल्कुल।’
‘क्यों?’
‘गंगा देश की पवित्र नदी है, एक तहजीब है। हर तबके का शख्स भावना के स्तर पर उससे जुड़ा है।’
‘उसी काम को तो इनके नेता ने भी आगे चलाया है!’
‘ढकोसला है सब। धर्म के नाम पर एक खास समुदाय के ध्रुवीकरण की साजिश है...।’
‘वह अच्छा काम था तो यह ‘साजिश’ कैसे है?’
‘उद्देश्य गलत है इसलिए। अपने ‘वोट’ इतनी आसानी से हम इन्हें तोड़ लेने नहीं देंगे।’