चादर
राजेन्द्र कुमार सिंह
परेश को बुजुर्गों से जो संस्कार मिला था वह उसी का अनुसरण करते हुए दिन-प्रतिदिन प्रगति पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा था। अपने पिताजी की तरह परेश भी झूठ, फरेब, चापलूसी व दिखावटीपन से कोसों दूर रहता था। उसके मन में हमेशा दूसरों के प्रति स्नेह की धारा बहती रहती थी।
हमेशा की तरह उसके दरवाजे पर जो भी अतिथि या हित मित्र आता तो उनके दुख-दर्द को जानकर अपनी तरफ से उसका निदान करने का कोशिश करता।
गांव के सबसे धनाढ्य व्यक्ति होने के कारण गांव के लोगों को अक्सर आर्थिक सहयोग की जरूरत पड़ती थी। इसके लिए लोग और कहीं नहीं जाते। परेश के दरवाजे पर ही दस्तक देते। सबसे बड़ी बात यह थी कि उस पैसे पर कभी ब्याज देना नहीं पड़ता था।
आज उसके दरवाजे पर सुखु चौधरी का आगमन हुआ था। सुखु चौधरी ने आने के विशेष प्रयोजन के बारे में बताया और अपने पॉकेट से बेटी की शादी का निमंत्रण पत्र थमा दिया।
परेश की अपने पिताजी से जब भी बात हुई उसमें सुखु चौधरी का विशेष रूप से आदर के साथ नाम लेते थे। वे कहते थे, ‘वह एक ईमानदार, खुद्दार व्यक्ति है।’
‘चाचा जी कुछ आर्थिक मदद चाहिए तो कहिएगा।’ परेश ने हाथ जोड़कर कहा।
सुखु ने उसके हाथों को पकड़कर चूम लिया था, ‘नहीं बबुआ जी। यदि वैसा वक्त आया तो जरूर मौका दूंगा। हालांकि मैं वैसा कार्य नहीं करता जिसमें दिखावटीपन की बू आए। प्रत्येक आदमी का फर्ज है, पांव उतना ही फैलाए जितनी बड़ी चादर हो।’ इतना कह जाते-जाते एक बार फिर कहा, ‘बबुआ जी जरूर आइएगा।’