शर्मदान
गोविंद शर्मा
वहां कई गांव आसपास थे। सभी गांव निवासियों का पेशा कृषि ही था। कृषि कार्य से फुर्सत मिलते ही इन गांवों के युवक विभिन्न खेल खेलते। ज्यादातर ऐसे थे जो कबड्डी ही खेलते। क्योंकि इस खेल में किसी अतिरिक्त सामान की जरूरत नहीं होती थी। बस, एक सीटी खरीदनी होती थी। गांव के चारों तरफ खेत थे। एक तरफ सड़क भी थी। उस सड़क के नीचे खेत की जमीन ही दफन हुई थी। सड़क के बाद थोड़ी दूर पर एक नदी थी।
एक दिन युवकों ने फैसला किया कि आज फुर्सत है। खेल खेलने की बजाय नदी को साफ करते हैं। हम इसी नदी से खेतों में सिंचाई करते हैं और इसका पानी पीते हैं। हमें इसे साफ रखना चाहिए।
युवकों ने कई घंटे श्रमदान किया। नदी से बहुत-सा कचरा निकाल कर नदी के किनारे कचरे के ढेर लगा दिए। निर्णय हुआ कि बुरी तरह से थक गए हैं। अब घर जाकर सोते हैं। कल इस कचरे का निस्तारण करेंगे।
कुछ घंटे बाद एक नेताजी अपने लंबे-चौड़े काफिले के साथ उस सड़क से गुजरने लगे। नदी के किनारे कचरे के ढेर देखकर उन्हें बड़ा गुस्सा आया। बोले- आसपास के गांवों के लोग बड़े असभ्य हैं। देखो, प्रदूषण फैलाने के लिए नदी के किनारे कचरे के ढेर लगा दिए हैं। आओ, हम सब मिलकर श्रमदान करते हैं। इस कचरे का निस्तारण करते हैं।
सर, कचरा उठाने और जगह साफ करने के लिए औजार लेकर आऊं? एक ने पूछा तो नेताजी ने जवाब दिया- पहले फोटोग्राफर बुलाओ। बयान-श्यान लेने वालों को बुलाओ। सर, फोटोग्राफर तो आजकल सभी की जेब में होता है। पत्रकारों का इंतजार करेंगे तो देर हो जाएगी। आप बयान मुझे दे दीजिए। मैं शहर पहुंचा दूंगा।
नेताजी के जुलूस-साथी काम में जुट गए। कुछ ही देर में नदी किनारे के कचरे के ढेर उठ गए। कहां गए? नेताजी की सलाह से सारा कचरा वापस नदी में डाल दिया गया। नेताजी की फोटो और बयान लेकर उनका एक सहायक शहर गया था। वह फोन पर पूछ रहा था- सर अखबार वाले पूछ रहे हैं कि इसे आप द्वारा करवाया गया निस्तारण मानें या विसर्जन?