नि:स्वार्थ ज्ञान
ऋषि संदीपनी श्रीकृष्ण और दरिद्र परिवार में जन्मे सुदामा को एक साथ बिठाकर विभिन्न शास्त्रों की शिक्षा देते थे। श्रीकृष्ण गुरुदेव के यज्ञ-हवन के लिए स्वयं जंगल में जाकर लकड़ियां काटकर लाया करते थे। श्रीकृष्ण रात के समय गुरुदेव के चरण दबाया करते और सवेरे उठते ही उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया करते। शिक्षा पूरी होने के बाद श्रीकृष्ण ब्रज लौटने लगे, तो ऋषि के चरणों में बैठते हुए हाथ जोड़कर बोले, ‘गुरुदेव, मैं दक्षिणा के रूप में आपको कुछ भेंट करना चाहता हूं।’ ऋषि संदीपनी ने मुस्कुराकर सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘वत्स कृष्ण, ज्ञान कुछ बदले में लेने के लिए नहीं दिया जाता। सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य को शिक्षा के साथ संस्कार देता है। मैं दक्षिणा के रूप में यही चाहता हूं कि तुम औरों को भी संस्कारित करते रहो।’ उन्होंने कहा, ‘वत्स, मैं यही कामना करता हूं कि तुम जब धर्म-रक्षार्थ किसी का मार्गदर्शन करो, तो उसके बदले में कुछ स्वीकार न करना।’ श्रीकृष्ण ने आगे चलकर अर्जुन को न केवल ज्ञान दिया, अपितु उनके सारथी भी बने।
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी