नि:स्वार्थ भक्ति
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य मथुरा बाबू भगवान श्रीहरि विष्णु के भक्त थे। वे धनपति थे और भौतिक ऐश्वर्य एवं चमक-दमक पसंद करते थे। उन्होंने एक बहुत ही सुंदर मंदिर का निर्माण कराकर उसमें भगवान श्रीहरि विष्णु की बेहद महंगी और मनमोहक प्रतिमा स्थापित कराई थी। वे मूर्ति का साज-शृंगार भी बेशकीमती वस्त्र-आभूषणों से करते थे। यह सब देखकर जब आगंतुक प्रशंसा करते तो मथुरा बाबू बहुत खुश होते थे। वे स्वयं भी स्वामी जी से मिलकर मंदिर और मूर्ति के शृंगार की भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे। स्वामी जी चुपचाप उनकी बातें सुनते थे। एक दिन मंदिर से मूर्ति के वस्त्र और गहने चोरी हो गए। मथुरा बाबू स्वामी जी के पास आए और सारी व्यथा सुनाई। स्वामी जी मथुरा बाबू के साथ मंदिर पहुंचे और मूर्ति को निहारने लगे। उधर मथुरा बाबू भगवान की मूर्ति से शिकायत करने लगे, ‘हम तो इंसान हैं, परंतु आप तो भगवान हैं, आपके सामने कैसे चोरी हो गई।’ मथुरा बाबू की बातें सुनकर स्वामी जी मुस्करा उठे तो मथुरा बाबू ने इसकी वजह पूछी। स्वामी जी बोले, ‘मथुरा बाबू! भगवान को महंगी चीजों से क्या लेना-देना। वे तो सिर्फ भक्ति चाहते हैं। जिन भक्तों की भावनाएं निःस्वार्थ भाव से जुड़ी होती हैं, उन्हें ही भगवान की कृपा मिलती है। अब मथुरा बाबू का दुःख दूर हो गया।
प्रस्तुति : चेतनादित्य आलोक