खुली आंखों से देखें
गगन शर्मा
सच तो यही है कि आंखों पर पट्टी बंधी होने से कभी भी न्याय नहीं हो पाता है। हमारे हजारों साल पुराने ग्रंथ भी इस बात के गवाह हैं। यदि आंखों पर पट्टी न होती तो संसार का सबसे बड़ा विनाशकारी युद्ध भी शायद न होता। कहावत है कि कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए। आज भी सत्य के पक्ष में खड़े युधिष्ठिर, अपनी बात ठीक से न रख पाने, सच्चाई को ठीक से उजागर न कर पाने के कारण, अपना पक्ष कमजोर कर लेते हैं। दूसरी ओर शकुनि जैसे लोग अपने वाकचातुर्य से असत्य को सत्य का जामा पहना बंद आंखों को धोखा देने में सफल हो जाते हैं।
स्कूल में, चाहे वह विज्ञान हो, भूगोल हो, गणित हो, पढ़ाए गए विषयों की सत्यता सदा एक-सी बनी रहती है। यदि स्कूल में बताया गया है कि पानी, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से बनता है तो यह सच्चाई सदा ही बनी रहती है। दो और दो चार ही होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी ही बना रहता है। गुरु जी की कुर्सी पर बैठा इंसान विद्वान होता है। किताबें तो सबने एक जैसी ही पढ़ी होती हैं, पर हर कोई उनको अपनी मर्जी के अनुसार परिभाषित करने लगता है। आज दसियों ऐसे उदाहरण हैं जब भारी-भरकम लोग अपनी बात मनवा कर चल देते हैं। अब तो तराजू वाली प्रतिमा को खुद ही अपनी आंखों पर बंधी पट्टी उतार फेंकनी होगी। इस विधा के प्रतीक को रोमन देवी जस्टीशिया के रूप में जाना जाता है। कहते हैं पहले मूर्ति की आंखों पर पट्टी नहीं होती थी, पर 16वीं शताब्दी में उसके सामने होने वाले अन्याय के प्रति उसे दृष्टिविहीन दिखाने के उद्देश्य से कुछ लोगों ने मूर्ति की आंखों पर पट्टी बांध दी। फिर इसे न्याय की निष्पक्षता के प्रतीक के रूप में प्रचारित कर दिया गया।
चलिए इन गुमानी कुर्सियों की तो आंखें बंद हैं पर हमारे पथ प्रदर्शक, हमारे धर्मगुरु, हमारा समाज यह सब क्यों चुप है? लचर कानून और न्याय व्यवस्था हमेशा से ही आम नागरिक की परेशानी का सबब रही है। यदि कुर्सी की आंखें खुली हों यानी वह कभी-कभी खुद भी संज्ञान लेने की जहमत उठा ले, तो सामने वाले की भाव-भंगिमा, चाल-ढाल, उसकी कुटिलता का आभास पा वस्तुस्थिति समझने में आसानी हो सकती है। यह भी बिलकुल सच है कि आंखों पर पट्टी होने के बावजूद कई कुर्सियां बिना किसी दबाव में आए, अपनी जान तक की परवाह किए बगैर अपने कर्तव्य को अंजाम देती रहती हैं।
साभार : कुछ अलग सा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम