एलएसी को सुरक्षा कवच
अतीत के अनुभवों और चीन की हालिया साम्राज्यवादी नीतियों के मद्देनजर यह निष्कर्ष साफ है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगते इलाके में सुरक्षा की कोई भी चूक हमें भारी पड़ सकती है। पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका में संपन्न ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद आस जगी थी कि दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ कुछ कम होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शी जिनपिंग के दिल्ली जी-20 शिखर सम्मेलन में न आने की घोषणा से साफ हो गया कि चीन के असली मंसूबे क्या हैं। बहरहाल, चीन की ये अविश्वसनीय नीतियां हमें सचेत रहने के सबक देती हैं। बहरहाल, कूटनीतिक संबंधों में गरमी-नरमी के बावजूद बीजिंग द्वारा एलएसी पर अपने इलाके में लगातार किये जा रहे संरचनात्मक निर्माण के मद्देनजर भारत ने भी अपनी सीमा पर बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के प्रयास तेज कर दिये हैं। इसी कड़ी में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह 12 सितंबर को वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर सीमा सड़क संगठन अर्थात् बीआरओ द्वारा निर्मित 2941 करोड़ रुपये की लागत वाली 90 परियोजनाओं का उद्घाटन करेंगे। इसके अंतर्गत संवेदनशील इलाकों में सड़कें,पुल, सुरंग और हवाई क्षेत्र का निर्माण शामिल है। ये परियोजनाएं सीमावर्ती राज्यों व केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में स्थित हैं। सीमा सुरक्षा की प्राथमिकता के मद्देनजर बीते साल भी राजग सरकार के दौरान 2897 करोड़ रुपये की लागत वाली बीआरओ बुनियादी ढांचा परियोजनाएं राष्ट्र को समर्पित की गई थीं। यहां उल्लेखनीय है कि युद्धकाल में इस दुर्गम क्षेत्र में वायु सेना की सक्रियता की जरूरत के मद्देनजर हवाई पट्टी की उपलब्धता अपरिहार्य है। इसके चलते ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इस क्षेत्र में एक हवाई पट्टी की आधारशिला भी रखेंगे। उल्लेखनीय है कि बीआरओ द्वारा पूर्वी लद्दाख के रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण न्योमा क्षेत्र में 218 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से इस हवाई पट्टी का निर्माण किया जायेगा। जो इस संवेदनशील इलाके की सुरक्षा तैयारियों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
निस्संदेह, लद्दाख के इस क्षेत्र में हवाई ताकत विस्तार के लिये बुनियादी ढांचे में वृद्धि की सख्त जरूरत है। भारत-चीन के बीच हाल के वर्षों में एलएसी पर हुए टकराव के मद्देनजर उत्तरी सीमा पर भारतीय वायु सेना को शक्तिशाली बनाना बेहद जरूरी है। जिससे वायुसेना तत्परता से युद्ध के दौरान अपनी भूमिका निभा सकेगी। अतीत के अनुभव बताते हैं कि वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध व कारगिल युद्ध में पाक के खिलाफ समय रहते वायुसेना की ताकत का उपयोग किया जाता तो युद्ध की तस्वीर कुछ और होती। निस्संदेह, हवाई ताकत में विस्तार में किसी भी तरह की देरी राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के लिये हानिकारक साबित हो सकती है। चिंताजनक तथ्य यह भी कि अरुणाचल प्रदेश में रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण सेला सुरंग का निर्माण कार्य विभिन्न कारणों से समय पर पूरा नहीं हो पाया है। उल्लेखनीय है, सेला सुरंग अग्रिम मोर्चों पर सैनिकों को पहुंचाने और हथियारों की तेजी से आपूर्ति में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। ऐसे में इस महत्वाकांक्षी परियोजना को समय रहते पूरा कर लिया जाना चाहिए। दरअसल, यह सुरंग विकट मौसम में भी सेना को हथियार-रसद आपूर्ति में लाभदायक सिद्ध होगी। उधर बीआरओ के शीर्ष अधिकारी स्वीकार रहे हैं कि सीमा पर बुनियादी ढांचे को विस्तार देने में भारत चीन से पीछे है। वे विश्वास जताते हैं कि इसके बावजूद सैन्य अभियानों को बढ़ावा देने के लिये रणनीतिक परियोजनाओं के त्वरित कार्यान्वयन में देश तेजी से आगे बढ़ रहा है। शीर्ष अधिकारी विश्वास जता रहे हैं कि आगामी तीन-चार वर्षों में भारत अपनी सीमा में ढांचागत निर्माण के क्षेत्र में चीन की बराबरी कर लेगा। इसके बावजूद हम मान लें कि आने वाले वर्षों में बीजिंग वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपने कदम पीछे नहीं हटाएगा। हालांकि, दोनों ही पक्षों के बीच सैन्य-कूटनीतिक स्तर पर बातचीत की संभावना लगातार बनी रहती है, लेकिन इसके बावजूद चीन की छल-बल की नीति को देखते हुए हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं कर सकते। हमें एलएसी पर अपनी सशक्त उपस्थिति को निरंतर बनाये रखना होगा।