साइंस फिक्शन को मिलने लगे दर्शक
देश में अब साइंस फिक्शन पर बनी फिल्मों का दर्शक वर्ग उभर रहा है वहीं इन्हें पर्दे पर उतारने वाले साहसी निर्माता-निर्देशक भी। अब पौराणिक कथा के साथ साइंस फिक्शन पर फिल्में बन रही हैं। हालांकि इसका दर्शक समूह छोटा है वहीं फिल्मकारों को माइथोलॉजी में मिश्रण की छूट भी पूरी तरह नहीं। प्रभास की ‘कल्कि 2898 एडी’ जैसी फिल्मों को मिला प्रतिसाद इसकी मिसाल है।
डी.जे.नंदन
बाहुबली फेम प्रभास के साथ अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘कल्कि 2898 एडी’ ने हाल ही में रिलीज होने के बाद कमाई के मामले में बॉक्स ऑफिस में तहलका मचा दिया। ओपनिंग में ही- ‘सालार’, ‘साहो’ और आदिपुरुष जैसी फिल्मों के ओपनिंग कलेक्शन का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। वैसे प्रभास की फिल्मों का हाल के दौर में काफी क्रेज है। दरअसल उनकी फिल्में महज अभिनय या स्टोरी की बदौलत ही दर्शकों को नहीं खींचती बल्कि इनके पीछे फिल्म की हाई एंड टेक्नोलॉजी, एक्शन, चमत्कारिक से सेट की भी बड़ी भूमिका है। लेकिन कल्कि 2898 एडी को महज इसी दायरे में नहीं रखा जा सकता बल्कि इस फिल्म से हिंदुस्तान में हॉलीवुड जैसी साइंस फिक्शन की भी शुरुआत महसूस की जा सकती है। हालांकि कल्कि 2898 एडी पूरी तरह साइंस फिक्शन नहीं और न ही पूरी पौराणिक फिल्म। यह सेमी माइथोलॉजिकल और सेमी साइंस फिक्शन है, जिसमें साइंस फिक्शन का जोर काफी ज्यादा है।
सवाल बजट और बर्दाश्त का
सिने प्रेमियों के बीच यह चर्चा का विषय रहा है कि आखिर भारत में हॉलीवुड जैसी साइंस फिक्शन जोनर की फिल्में क्यों नहीं बनतीं? या हॉलीवुड की साइंस फिक्शन, भारत में उस तरह से क्यों नहीं चलतीं, जिस तरह से वे चीन और जापान में चलती हैं? ऐसे दोनों ही सवालों का एक ही जवाब रहा है कि भारत में निर्माता-निर्देशक न तो हॉलीवुड जैसी टेक्नोलॉजी का बजट बर्दाश्त करने की क्षमता में रहे हैं और न ही हिंदुस्तान में ऐसे दर्शक हैं जो पौराणिक कथाओं में जरा भी साइंस के दुस्साहसी हस्तक्षेप को बर्दाश्त कर पाएं। लेकिन धीरे-धीरे अब यह स्थिति बदल रही है। भारत में भी अब ऐसे निर्माता सामने आ रहे हैं, जो 600-700 करोड़ रुपये तक फिल्म बनाने में खर्च कर सकते हैं और ऐसे साहसी निर्देशक भी जो इतने भारी बजट की फिल्मों को नियंत्रित करने का दम रखते हैं।
‘ब्रह्मास्त्र’ से ‘कंतारा’ तक का ट्रेंड
तेलुगू के युवा निर्देशक नाग अश्विन रेड्डी को इसी श्रेणी का मान सकते हैं। इनकी फिल्म कल्कि 2898 एडी का जो दूसरा पार्ट इन दिनों बॉक्स ऑफिस पर कमाई कर रहा है, उसकी लागत 600 करोड़ रुपये है। नाग अश्विन रेड्डी सिर्फ निर्देशक भर नहीं बल्कि वे साइंस फिक्शन और पौराणिक कथाओं को मिक्स करके बनने वाली फिल्मों के जबरदस्त पटकथा लेखक भी हैं। साल 2015 में उन्होंने अपनी पहली ही ड्रामा फिल्म ‘येवडे सुब्रामण्यम’ पर एक्शन, ड्रामा और साइंस फिक्शन वाले फार्मूलों का इस्तेमाल किया था। अब जिस तरह से उनकी कल्कि 2898 एडी दूसरे पार्ट को रेस्पॉन्स मिल रहा है, उससे लगता है कि वो दिन दूर नहीं जब भारत में भी हजारों, करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली साइंस फिल्में बनेंगी। अगर हम ‘ब्रह्मास्त्र’ से ‘कंतारा’ तक की फिल्मी यात्रा को देखें तो साफ पता चलता है कि पीढ़ियों से चली आ रही मिथकप्रियता को भारतीय अब बड़े पर्दे पर देखने के लिए भी तैयार हो रहे हैं। क्योंकि हाल के सालों में कई ऐसी फिल्में बनी हैं, जो सिर्फ पौराणिक आख्यानों पर ही आधारित नहीं हैं बल्कि थोड़ा-बहुत मानवीय हस्तक्षेप भी बर्दाश्त किया गया है। चाहे कमल हसन अभिनीत ‘दशावतारम’ रही हो, जियो सिनेमा की ‘हनुमान’, नेटफ्लिक्स की ‘राजनीति’ अमेजन प्राइम वीडियो की ‘रावण’ व ‘राम सेतु’, डिज्नी और हॉटस्टार की साझी ‘ब्रह्मास्त्र पार्ट वन: शिवा’ रही हो या नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम वीडियो का साझा शाहकार फिल्म ‘कंतारा’ रही हो। इन सब फिल्मों में पौराणिकता व साइंस फिक्शन के तत्व थे और भारतीय दर्शकों ने भी इन्हें स्वीकार किया है।
हॉलीवुड बनाम बॉलीवुड
कह सकते हैं कि भारत में अब साइंस फिक्शन के दर्शकों का भी धीरे-धीरे अच्छा-खासा समूह उभर रहा है। भले यह हॉलीवुड की फिल्मों जितना न हो। इस समूह की रुचियों को ध्यान में रखकर भारत में निर्माता-निर्देशक ऐसी पुराण मिश्रित विज्ञानकथाओं वाली फिल्मों के निर्माण की हिम्मत करते हैं, तो उन्हें ठीक-ठाक कमाई के लिए निराश नहीं होना पड़ेगा। यह सच है कि भारत में पारंपरिक सिने दर्शक हॉलीवुड साइंस फिल्मों का अटूट प्रशंसक नहीं रहा। लेकिन यह भी नहीं कि हॉलीवुड साइंस फिल्में भारत में रिलीज व सफल न होती रही हों। पर यह भी सच है कि हॉलीवुड की फिल्में अपनी पुराण कथाओं के साथ जिस तरह का दुस्साहस की हदतक छूट लेती हैं, ऐसी हिम्मत भारतीय निर्माता-निर्देशक नहीं कर सकते।
भारत में पुराण कथाओं का तटस्थ होकर आनंद नहीं लिया जाता बल्कि उन्हें अपनी संस्कृति का हिस्सा मानते हुए उनमें आस्था रखी जाती है। इसलिए भारत में फिल्म निर्माता-निर्देशक हॉलीवुड या पश्चिमी देशों की दूसरी फिल्म इंडस्टीज में बनने वाली फिल्मों की तरह फिल्में नहीं बना सकता। यहां अपनी आस्थाओं के लिए लोग हर समय मरने, मारने को तैयार रहते हैं। मगर अब हिंदुस्तान में भी एक ऐसा दर्शक वर्ग उभरकर आ रहा है, जो फिल्मों को फिल्में मानकर ही देखता है और उनका आनंद लेता है।
-इ.रि.सें.