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राजनीति से मुक्त हों विज्ञान पुरस्कार

07:43 AM Oct 04, 2024 IST
दिनेश सी. शर्मा

दिनेश सी. शर्मा
एक साहसिक और विरला कदम उठाते हुए, 175 वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने देश में विज्ञान के क्षेत्र में दिए जाने वाले सम्मान - राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार - के राजनीतिकरण पर निराशा व्यक्त की है। इस पुरस्कार की स्थापना पिछले साल केंद्र सरकार ने की थी। कुछ सप्ताह पहले, प्रथम पारितोषिक समारोह में राष्ट्रपति द्वारा विजेताओं को पुरस्कार प्रदान किए जाने के तुरंत बाद चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। हुआ यह कि चयन समिति द्वारा भेजे गए तीन वैज्ञानिकों के नाम पुरस्कार विजेताओं की अंतिम सूची से गायब थे। जबकि समिति के कुछ सदस्यों ने अनौपचारिक रूप से उन्हें यह खबर बता दी थी। लेकिन बाद में उनको करारा झटका लगा। आशंका जताई गई कि उक्त विचाराधीन वैज्ञानिकों को उनके राजनीतिक विचारों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनके रुख के कारण राष्ट्रीय सम्मान से वंचित किया गया।
एतराज का पहला संकेत शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त 26 विजेताओं ने जताया था, जब उन्होंने प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार (पीएसए) और राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार समिति के प्रमुख अजय सूद को पत्र लिखकर जानना चाहा कि क्या पैनल की सिफारिशें ज्यों की त्यों स्वीकार की गईं या फिर सरकार ने संशोधन किया है और उन्होंने पीएसए से अंतिम निर्णय पर पहुंचने में अपनाए गए मानदंडों का खुलासा करने का अनुरोध किया। यह मामला सार्वजनिक होने के बाद, सरकार ने चयन प्रक्रिया में ही बदलाव कर दिया, जिसके चलते 175 वैज्ञानिकों ने विरोध पत्र जारी किया। वैज्ञानिकों ने 24 सितंबर को पीएसए को लिखे पत्र में कहा ः ‘सरकार ने चयन मानदंडों में किया गया बदलाव अपने पोर्टल पर दर्शाया है और पुरस्कार समारोह से महज चंद दिन पहले अपलोड किए गए नए प्रारूप में एक नई लाइन जोड़ी गई है कि अब आपकी अध्यक्षता वाली चयन समिति अपनी सिफारिशें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री को सौंपेगी’।
चयन प्रक्रिया में किया गया यह बदलाव राजनेताओं द्वारा चयन समिति का निर्णय खारिज करने या बदलने का मार्ग प्रशस्त करता है –जबकि यह समिति व्यावहारिक रूप से भारतीय वैज्ञानिक समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है। समिति में वैज्ञानिक अकादमियों के अध्यक्षों के अलावा वैज्ञानिक विभागों के सचिव भी सदस्य हैं। वैज्ञानिक समुदाय को इसका आभास पहले ही हो गया था। सर्वप्रथम तो गृह मंत्रालय द्वारा समूचे वैज्ञानिक विभागों की बागडोर अपने हाथ में लेना और दर्जनों पुरस्कारों को समाप्त करना बेतुका था, जिसमें 1950 के दशक में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार और अन्य स्वायत्त विज्ञान अकादमियों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार शामिल थे। श्रेष्ठ वैज्ञानिक कार्य को मान्यता देने को स्थापित किए गए पुरस्कारों और निष्पक्ष तरीकों को समाप्त करना तथा उनकी जगह एक नया सरकारी पुरस्कार शुरू करना, जिसमें कोई नकद राशि नहीं है, एक कठोर झटका है। तिस पर, नई पुरस्कार प्रक्रिया विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रही है। अंतिम निर्णय एक राजनीतिक पदाधिकारी पर छोड़ने का मतलब है कि पुरस्कार विजेताओं के चयन में गैर-शैक्षणिक विचारों की भूमिका रहेगी।
पुरस्कारों से इतर, यह प्रसंग भारत में अकादमिक स्वतंत्रता और विज्ञान क्षेत्र के परिचालन के बारे में अहम सवाल उठाता है। प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने पत्र लिखकर पुरस्कार प्रकरण को 'भारतीय विज्ञान के लिए एक अस्वस्थ घटना' ठहराकर सही किया है। वैज्ञानिकों को चिंता है कि यह होने पर मंत्रियों द्वारा 'अबाध वीटो' का उपयोग करते हुए विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों को दरकिनार करने वाला चलन कायम हो जाएगा। पत्र में यह आशंका भी जताई गई है कि सरकार को न सुहाने वाले शिक्षाविदों को न केवल पुरस्कारों से बल्कि वैज्ञानिक अनुदान, भर्ती, पदोन्नति आदि से भी महरूम रखा जा सकता है। यह वैज्ञानिक कार्य पद्धति के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है और वैज्ञानिक अनुसंधान के विकास के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
सामान्यतः अपेक्षा की जाती है कि विज्ञान की किसी शाखा विशेष में एक वैज्ञानिक द्वारा प्राप्त विशिष्ट उपलब्धि को मान्यता देने में निष्पक्षता बनी रहेगी। आमतौर पर यह काम समकक्षों द्वारा की गई समीक्षा के माध्यम से किया जाता है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार– जिसे अब बंद किया जा चुका है – वह सर्वोच्च सम्मान था जोकि भारतीय विज्ञान जगत की विविध धाराओं में सबसे बढ़िया कर दिखाने वाले को पारितोषिक मान्यता प्रदान करता था। पुरस्कार विजेताओं की इस सूची का मतलब है- पिछले कई दशकों में भारत के चोटी के साईंसदान। जिन्हें यह पुरस्कार मिला, उन्होंने आगे चलकर अपने-अपने संस्थान का नेतृत्व किया, नए संस्थान स्थापित किए, फंड देने वाली एजेंसियों और विज्ञान विभागों की अगुवाई भी की। यदि अपनी स्थापना के पहले ही साल में राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार की चयन प्रक्रिया पर इस प्रकार सवाल खड़े हो गये तो क्या यह लंबे तक कायम रही भटनागर पुरस्कार की विरासत को आगे बढ़ा पाएगा।
यह प्रकरण पिछले कुछ वर्षों में पीएसए की भूमिका में निरंतर क्षरण को भी उजागर करता है। भले ही इस पद का सृजन 1999 में हुआ हो, लेकिन आजादी के बाद से ही भारत में विज्ञान संबंधी नीतियों पर परामर्श देने के लिए एक तंत्र रहा है, जिसकी शुरुआत 1950 के दशक में वैज्ञानिक कार्यों के समन्वय के लिए राष्ट्रीय समिति बनाने से हुई थी। आगे चलकर, सरकार, मंत्रिमंडल और प्रधान मंत्री के लिए वैज्ञानिक सलाहकार समितियां बनीं। इस परामर्श तंत्र के परिणामस्वरूप वैज्ञानिक विभागों की स्थापना और पुनर्गठन, नए विज्ञान मंत्रालयों का निर्माण, अनुसंधान संस्थान और शैक्षणिक निकायों के साथ-साथ कई राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों का विकास हुआ। एक स्वतंत्र विज्ञान परामर्श प्रणाली ने विज्ञान और नीति के बीच समन्वय और नए विचारों के समाशोधन गृह के रूप में कार्य किया है।
पीएसए की भूमिका में विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित नीतिगत मामलों के साथ-साथ सामान्य रूप से विज्ञान-आधारित नीति समाधानों पर सलाह देना शामिल है। दोनों ही मामलों में, नीति निर्माण में विज्ञान समुदाय का मार्गदर्शन साथ रखना चाहिए। नीति निर्माताओं का काम विज्ञान अनुदान और पुरस्कार से संबंधित मामलों को देखना नहीं है। यह पीएसए पर निर्भर है कि वह किस हद तक यह संतुलन साध सकता है। लेकिन, हाल के वर्षों में,पीएसए के कामकाज की भूमिका को वैज्ञानिक विभागों के बीच समन्वय बनाने तक सीमित कर दिया गया है और किसी अन्य सरकारी एजेंसी की भांति काम सौंपा गया है। मसलन, हवाई अड्डों पर विविध डैशबोर्ड तैयार करना या प्रचार कियोस्क की व्यवस्था करना क्या पीएसए का काम है? उसे प्रौद्योगिकी और तकनीकी उत्पादों की क्रय-निविदाओं की जांच करने जैसे प्रशासनिक कार्य भी सौंप रखे हैं, यह 1960 और 1970 के दशक के 'लाइसेंस राज' की याद दिलाता है, जब इसके चरम पर प्रौद्योगिकी विकास के महानिदेशक का काम कुछ ऐसा ही था। पीएसए पर जो एक अन्य जिम्मेदारी लाद रखी है वह है सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा विकसित प्रौद्योगिकियों की डिजिटल सूची बनाना और ऐसी प्रौद्योगिकियों के लिए एक ई-मार्केट प्लेस बनाना ताकि सरकारी संगठन और निजी क्षेत्र को उनकी खरीद की सहूलियत हो। इस किस्म के रूटीन के काम अन्य एजेंसियों और विभागों द्वारा भी बखूबी संभाले जा सकते हैं। पीएसए कार्यालय को ऐसे कार्य सौंपने से सरकार को विज्ञान पर स्वतंत्र और स्वायत्त सलाह प्रदान करने के उसके प्राथमिक कार्य का क्षरण होता है।

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लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के स्तंभकार हैं।

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