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खटाखट-फटाफट की सतही राजनीति से बचे लोकतंत्र

08:28 AM May 22, 2024 IST
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विश्वनाथ सचदेव
हमारे समय के महान कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण ने अपने एक कार्टून में नेताओं के कार्टून न बनाने की बात की थी। उन्होंने लिखा था, ‘अब मैं नेताओं के कार्टून नहीं बनाता, क्योंकि अब स्वयं कार्टून नेता बनने लगे हैं।’ बरसों पहले बनाया गया था यह कार्टून, और लक्ष्मण के बनाये अनेक कार्टूनों की तरह यह आज भी प्रासंगिक है– शायद उस समय से कहीं ज़्यादा जब यह कार्टून बनाया गया था। इस कार्टून में लक्ष्मण का ट्रेडमार्क ‘आम आदमी’ हैरानी और चालाक-सी मुस्कान के साथ इस घोषणा को होते सुन-देख रहा है!
आज भी आम आदमी के चेहरे पर वही मुस्कान है। पत्रकारिता में कभी कहा जाता था, ‘एक चित्र सौ शब्दों के बराबर होता है। यही बात कार्टून पर भी लागू होती है। जहां तक नेताओं के कार्टून बन जाने का सवाल है आज की राजनीति में इसके उदाहरण खोजने की आवश्यकता नहीं है– एक ढूंढ़ो हज़ार मिलते हैं।
चुनावों का मौसम अभी चल रहा है। कुछ ही दिन में चुनाव के परिणाम भी आ जाएंगे, नई सरकार बन जायेगी। नये-पुराने नेता कुर्सियां संभालेंगे। तब किसी लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ के चेहरे पर वैसी ही मुस्कान होगी जो उस कार्टून में दिख रही थी। पर आज की राजनीति को देखते हुए यह समझना ज़रूरी है कि मुस्कुराना पर्याप्त नहीं है। यह स्थिति अपने आप में कम पीड़ादायक नहीं है कि हमारी राजनीति का स्तर लगातार नीचे खिसक रहा है। देश के राजनीतिक नेतृत्व ने इस चुनाव-प्रचार के दौरान नई गिरावट को छूने का जैसे एक रिकॉर्ड बनाया है। विभिन्न दलों के राजनेताओं में जैसे प्रतियोगिता चल रही थी घटिया राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत करने की। हमारी राजनीति सिद्धांतों और मूल्यों के बजाय जुमलों में सिमट कर रह गयी है। जुमले की भी एक नयी परिभाषा ईजाद की है हमारे नेताओं ने– आप चाहें तो इसे ‘लफ्फाजी’ नाम दे सकते हैं।
था कोई जमाना जब हमारे देश में चुनाव की तुलना यज्ञ से की जाती है। दूसरे आम चुनाव की बात है। चुनावी सभाओं में एक कविता सुनाई देती थी– ‘ओ मतदाता, तुम भारत के भाग्य-विधाता/ राजसूय सम भारत के हित/ यह चुनाव है होने जाता/ कागज का यह नन्हा-टुकड़ा भारत माता का संबल है/ वोट नहीं है तेरे कर में, महायज्ञ-हित तुलसी दल है।’ आज हमारे राजनेता उस तुलसीदल के लिए झूठ और फरेब का सहारा ले रहे हैं। त्रासदी तो यह भी है कि जो जितना बड़ा नेता है वह उतना बड़ा झूठ बोल रहा है। घटिया बोलों की एक प्रतिस्पर्धा चल रही है। किसी भी प्रकार के शर्म या लिहाज़ के लिए हमारी राजनीति में जैसे कोई जगह नहीं बची।
हमारे नेता यह मानकर चल रहे हैं कि हल्की-फुल्की बातों से मतदाता को बरगलाया जा सकता है। ताजा उदाहरण ‘खटाखट’ वाली राजनीति का है। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने एक चुनावी सभा में ‘खटाखट-खटाखट’ का प्रयोग क्या किया, राजनेताओं को जैसे नया खिलौना मिल गया। राहुल गांधी ने कहा था, ‘मोदी अपने धनवान मित्रों को पैसा दे रहे हैं, पर मैं पैसा आपको दूंगा खटाखट-खटाखट। यहां खटाखट से उनका आशय तेजी से पैसा देना था। प्रधानमंत्री मोदी को यह शब्द पसंद आ गया और दूसरे ही दिन उन्होंने एक चुनावी सभा में ‘खटाखट’ शब्द के माध्यम से राहुल गांधी का मज़ाक उड़ाने का अभिनय किया। खटाखट शब्द में कहीं कुछ ग़लत नहीं है। वैसे ही जैसे ‘दीदी, ओ दीदी’ कहना कहीं से ग़लत नहीं लगता। पर पिछले चुनाव में जिस तरह ‘ओ दीदी’ उचारा गया था, उसे भद्र भाषा का उदाहरण तो नहीं कहा जा सकता। इस खटाखट शब्द की भी जिस तरह नकल उतारी गयी, उसे हास्यास्पद तो कहा ही जा सकता है!
राहुल गांधी ने अपने भाषण में देश की हर गरीब महिला के बैंक खाते में 8500 रुपये खटाखट जमा करवाने की बात कही थी। प्रधानमंत्री जी ने इस खटाखट शब्द से उनका मज़ाक उड़ाया जो खटाखट पैसा देने की बात कर रहे थे। मतदाताओं को अपने नेताओं से कुछ गंभीर आचरण की अपेक्षा भी होती है। लेकिन हमारे नेता तो मतदाता को बच्चों की तरह रिझाने में विश्वास करते हैं!
प्रधानमंत्री मोदी न जाने कब से देश के मतदाताओं को पांच किलो अनाज से रिझा रहे हैं। पहले देश के अस्सी करोड़ गरीबों को कुछ अर्से के लिए प्रतिमाह पांच किलो अनाज दिया गया था, फिर चुनाव से ठीक पहले यह कह दिया गया कि अगले पांच साल तक यह खैरात बंटती रहेगी। अब कांग्रेस के अध्यक्ष ने कहा है कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वह पांच किलो के बजाय दस किलो अनाज प्रति माह देंगे। यही नहीं, यह बात कहीं इस तरह से कही जाती है मानो प्रधानमंत्री अथवा विपक्ष के नेता अपनी जेब से खर्च करके मतदाता को अनुगृहीत कर रहे हैं! लाभार्थी नाम दिया गया है सरकारी सहायता पाने वालों को। इसी तरह ‘रेवड़ी बांटने’ की बात भी हुई थी। सत्ताधारी पक्ष जनता को अनुदान देने को कल्याणकारी कार्य बताता है और विपक्ष की सरकारों को ‘रेवड़ियां’ न बांटने की सलाह देता है। चुनाव-प्रचार के इस सोच पर सवाल उठना ही चाहिए।
सवाल इस बात पर भी उठाना चाहिए कि पंथ-निरपेक्ष देश में धर्म के नाम पर वोट मांगने की इजाज़त कैसे दी जा रही है? अयोध्या में बने राम मंदिर पर ‘बाबरी ताला’ लगाये जाने के षड्यंत्र की बात का आखिर क्या मतलब है? कैसे कोई राजनेता यह कह सकता है कि, ‘तुम्हारे’ मंगलसूत्र भी उनको दे दिये जाएंगे? यह ‘तुम्हारे’ कह कर किसे संबोधित किया जा रहा है और यह ‘उनको’ का क्या मतलब है? हमारे संविधान-निर्माताओं ने बहुत सोच-समझ कर देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित किया था। विभाजन के समय देश में जो परिस्थितियां बन गयी थीं, उन्हें देखते हुए आसान नहीं था इस प्रकार का निर्णय लेना। संविधान-सभा में इस सबको लेकर पर्याप्त विचार-विमर्श हुआ था और पाकिस्तान को मुस्लिम राष्ट्र घोषित किये जाने के बावजूद हमने देश को धर्मनिरपेक्ष रखने का निर्णय लिया था। वस्तुत: यह निर्णय मानवता के पक्ष में लिया गया था। सारी दुनिया को रास्ता बताया था हमने– मनुष्यता का रास्ता। आखिर धर्म के नाम पर संकीर्णता वाली सोच हमें कहां ले जायेगी?
यह जनतांत्रिक मूल्यों की सफलता का ही एक उदाहरण है कि हमारे देश में नियम से चुनाव हो रहे हैं। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। जनतांत्रिक मूल्यों को आचरण में उतारना ही इस सफलता की असली कसौटी है। इन्हीं मूल्यों का तकाज़ा है कि धर्म को राजनीति का हथियार बनाने की मानसिकता से उबारा जाये। यह ‘हम’ और ‘वे’ वाली राजनीति समाज को बांटने वाली है, हमें सिर्फ ‘हम’ वाली राजनीति की आवश्यकता है। ‘हम भारत के लोग’ ने अपने लिए एक संविधान बनाया था, यह हर भारतीय को सम्मान और स्वाभिमान से जीने का अधिकार देता है– सबका साझा है यह अधिकार। इस अधिकार को खटाखट और फटाफट वाली घटिया राजनीति का शिकार नहीं होने दिया जा सकता। हमारे नेताओं की चुनावी सभाएं बताती हैं कि यह खटाखट वाली राजनीति उन्हें दाता बना रही है और नागरिक को इस दाता की कृपादृष्टि का पात्र।
यही नहीं अब हमारे नेता ऐसी गारंटियां भी देने लगे हैं, जिनका कोई आधार उनके पास नहीं है। इस ‘गारंटी राजनीति’ की शुरुआत कर्नाटक के पिछले चुनाव में कांग्रेस ने की थी, फिर भाजपा ने इसे लपक लिया। प्रधानमंत्री ने नहले पर दहला चलते हुए ‘गारंटी पूरे होने की गारंटी’ वाली चाल चली। अब यानी हमारी राजनीति के कर्णधार अपने आप को देश के सामान्य नागरिकों से भिन्न मानते हैं, कुछ ऊंचा मानते हैं। विषमता का यह चेहरा हमारी राजनीति का घटिया पक्ष ही दिखाता है। स्वस्थ राजनीति का तकाज़ा है कि राजनेता स्वयं को मतदाता का स्वामी न समझें। वे भी नागरिक मात्र हैं, बस उनकी भूमिका कुछ भिन्न है। पता नहीं यह स्थिति कब आयेगी, कब वे ऐसा समझेंगे?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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