राष्ट्रीय तार्किकता के पक्षधर सावरकर
राजकिशन नैन
‘देश का विभाजन और सावरकर’ नामक अपनी हालिया किताब में लेखक डॉ. राकेश कुमार आर्य ने बल दिया है कि देश का बंटवारा सावरकर को स्वप्न में भी स्वीकार नहीं था। ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग की हठधर्मी, सर सैयद अहमद खान, जिन्नाह और इकबाल जैसे अलगाववादी मुसलमानों की धर्मांधता तथा कांग्रेस की जल्दबाज़ी के कारण हुए विभाजन की कसक विनायक दामोदर सावरकर को ताउम्र सालती रही। स्वातंत्रय-योद्धा के रूप में उनकी सेवाएं और त्याग अविस्मरणीय है।
सावरकर ने बचपन में ही यह सौगंध खा ली थी कि, ‘मैं सशस्त्र क्रांति का झंडा बुलंद करूंगा, ताकि देश स्वतंत्र हो और तब तक लड़ता रहूंगा, जब तक कि दुश्मन से लड़ता हुआ मारा न जाऊं।’ शस्त्र के उपासक सावरकर ने जीवनभर अपने इस व्रत का पालन किया। अपने देश की माटी से उन्हें अपार मोह था। ‘वीरवाणी’ में सावरकर ने लिखा है कि ‘हिन्दुस्तान आदिकाल से धर्म प्रवर्तक ऋषि-मुनियों, वीरों, देवी-देवताओं और संत-महात्माओं की जन्मभूमि है। इसी कारण वह हमें प्रिय है। इस धरा पर हमारा इतिहास निर्मित हुआ है। यहां पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे आर्यधर्मी पूर्वजों का शासन रहा है। युग-युगांतर से यह पावन धरा हमारी पितृभूमि, यज्ञभूमि एवं जीवन का एकमात्र प्रावस्थान है।’ सावरकर हिन्दू हित रक्षक के रूप में वैदिक सत्य, सनातन संस्कृति एवं शाश्वत धर्म की रक्षा को राष्ट्र की सुरक्षा कहते थे।
सावरकर को देश पर सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा स्वामी दयानन्द के शिष्य श्यामजी कृष्ण वर्मा ने दी थी। अपनी इकहरी काया में आत्मविश्वास का जो अटूट संबल लेकर सावरकर चलते थे, उसे उनके विरोधी कभी नहीं नाप सके। जेल में साहित्य रचने वाले दूसरे जेलयात्रियों की तरह वे भी अच्छे लेखक और खरे इतिहास पुरुष थे।
सन् चालीस के दशक में उन द्वारा लिखा ‘1857 का इतिहास’ उस युग का प्रामाणिक इतिहास है। सावरकर ने लिखा था कि, ‘राष्ट्र को चाहिए कि वह अपने इतिहास पर हावी न हो, और न ही इतिहास को स्वयं पर हावी होने दे। स्थिति को बिना समझे-बूझे लकीर की फकीरी गलत है। इतिहास की उन गलतियों से सबक लेना जरूरी है, जिनकी वजह से हमें गुलामी का दंश झेलना पड़ रहा है।’ सन् 1900 की पहली जनवरी को सावरकर ने ‘मित्र मेला’ के नाम से जो संस्था खड़ी की थी, उसके कई सदस्य संघर्षशील क्रांतिकारी बने थे।
सावरकर ऐसे भारत की कल्पना करते थे, जिसमें हिन्दू आदर्शों की प्रधानता हो। उनके हिंदुत्व से डरकर ब्रिटिश सरकार ने नासिक षड्यंत्र केस में उनको झूठे मुकदमे में फंसाया और उन्हें आजन्म काले पानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया। सावरकर का जेल जीवन बड़ा ही कष्टपूर्ण रहा। जेल से छूटकर उनने मराठी में अपनी आत्मकथा लिखी। सावरकर ने भारतीय राष्ट्रीयता के पक्ष को तार्किक ठहराने के लिए जो दस्तावेजी साहित्य रचा, वह बड़े काम का है।
पुस्तक : भारत का विभाजन और सावरकर लेखक : डॉ. राकेश कुमार आर्य प्रकाशक ः डायमंड पॉकेट बुक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 152 मूल्य : रु. 200.