मध्यकालीन भारत की प्राणशक्ति संत साहित्य
ज्ञान चंद शर्मा
आचार्य रामानन्द द्वारा दक्षिण से लाई गई भक्तिधारा उत्तर में सगुण और निर्गुण दो शाखाओं के रूप में प्रवाहित हुईं। सगुण भक्ति की एक सुदीर्घ परंपरा है। निर्गुण भक्ति की अवधारणा अपेक्षाकृत नई है जो मध्यकालीन सगुण भक्ति के शास्त्रीय स्वरूप को नकार कर एक भिन्न प्रकार के साधना पथ पर अग्रसर होती दिख पड़ती है। यह एक प्रकार से चिर आचरित शास्त्र सम्मत भक्ति पद्धति के विरुद्ध एक शांत आन्दोलन था जो परंपरागत काशी-प्रयागराज जैसे स्थापित केंद्रों से हट कर दूर दराज़ गांव-क़स्बों में स्थानांतरित हो रहा था। इसके उन्नायक विशिष्ट न होकर सामान्य वर्ग के लोग थे जो अपनी धरती से पूरी तरह जुड़े हुए थे, इसकी परिस्थितियों से परिचित थे जिनको उन्होंने वाणी दी। परवर्ती काल में इस का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। विवेच्य पुस्तक ‘संत-साहित्य की प्रासंगिकता’ में इसी प्रभाव को सिद्ध करने का प्रयास है।
‘संत-साहित्य की प्रासंगिकता’ में एक संगोष्ठी में प्रस्तुत किये गए बाईस आलेखों और प्रपत्रों का संकलन है। इनमें से लगभग आधे केवल दादू दयाल से संबंधित हैं, एक-एक सहजो बाई, स्वामी नितानंद और सुंदर दास को लेकर प्रस्तुत किए गए हैं। संत धारा के अग्रणी कबीर और रविदास को उपेक्षित किया गया है, जिसकी कमी महसूस होती है। इसकी भरपाई कुछ हद तक कतिपय लेखों में उनके संदर्भित उल्लेख से हो जाती है।
संतों की वाणी ने मध्यक़ालीन भारतीय समाज के लिए नई प्राणशक्ति का काम किया। इसका प्रभाव अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचा। यह वाणी आज भी सार्थक और प्रेरक है।
‘संत-साहित्य की प्रासंगिकता’ में संकलित प्रायः सभी लेख विषय के ज्ञाता विद्वान लेखकों द्वारा प्रस्तुत किये गए हैं। इनमें कथ्य को सप्रमाण स्पष्ट करने का सफल प्रयास है। पुस्तक से संत साहित्य के संबंध पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।
पुस्तक : संत-साहित्य की प्रासंगिकता संपादन : डॉ. मधु मालती, डॉ. रमाकांत शर्मा प्रकाशक : प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली पृष्ठ : 176 मूल्य : रु. 400.