सत्ता की राजनीति में विचार-सिद्धांतों की बलि
हाल ही की बात है। अमेरिका के अपने ऐतिहासिक दौरे के ठीक बाद प्रधानमंत्री ने भोपाल में अपने समर्थकों की एक सभा में छाती ठोक कर ‘गारंटी’ दी थी कि वे राजनीति में भ्रष्टाचार का झंडा गाड़े लोगों को उखाड़ फेंकेंगे। बड़े नाटकीय अंदाज में कही थी उन्होंने यह बात। और श्रोताओं ने तालियां बजाकर उनके इस अंदाज की प्रशंसा की थी। उस सभा में प्रधानमंत्री ने नाम लेकर महाराष्ट्र के राजनीतिक दल नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के नेताओं को भ्रष्टाचारी बताया था और बड़े-बड़े घपले गिनाये थे। अच्छा लगा था यह सुनकर और पिछले उदाहरणों के बावजूद यह विश्वास करने का मन किया था कि भ्रष्टाचार की राजनीति करने वालों के खिलाफ अब कुछ ठोस कार्रवाई होगी। पर इस ‘गारंटी’ के लगभग एक सप्ताह बाद ही महाराष्ट्र की राजनीति में जो उठापटक हुई उससे यह विश्वास चूर-चूर हो गया। एनसीपी के नेता अजित दादा पवार पर प्रधानमंत्री पहले भी करोड़ों-करोड़ों के सिंचाई घोटाले और सहकारी बैंक घोटाले का आरोप लगा चुके हैं, इसी ‘अपराध’ की सज़ा देने की बात उन्होंने फिर दुहराई थी।
यही नहीं, महाराष्ट्र के वर्तमान उपमुख्यमंत्री फडणवीस ने भी अजित पवार को ‘चक्की पीसिंग पीसिंग’ का श्राप दिया था। लेकिन एक ही झटके में वह सारी बातें हवा हो गयीं। अजित पवार के नेतृत्व में एनसीपी के कुछ नेताओं ने बगावत कर दी और ‘चाल-चरित्र’ का दावा करने वाली ‘दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी’ ने भ्रष्टाचार के सारे आरोपों को भुलाकर उन्हें अपने दामन में समेट लिया। अब फडणवीस के साथ अजित पवार भी महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री हैं और प्रदेश में तीन इंजनों वाली सरकार काम कर रही है।
महाराष्ट्र की राजनीति पर इस राजनीतिक भूचाल का क्या असर पड़ता है यह तो आने वाला कल ही बतायेगा, लेकिन प्रधानमंत्री की ‘गारंटी’ ने और उसके तत्काल बाद इस परिघटना ने राजनीति में नैतिकता के सवाल को फिर से उछाल कर सामने ला दिया है। यूं तो राजनीति में नैतिकता की अपेक्षा करना अपने आप में एक मज़ाक लगने लगा है, फिर भी जब कोई बड़ा नेता राजनीति से भ्रष्टाचार को मिटाने की गारंटी देने का काम करता है तो यह आकांक्षा बलवती हो जाती है कि शायद वह ईमानदारी से कह रहा हो!
सत्तारूढ़ दल के नेता अक्सर बड़े गर्व से यह बात कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ वाली राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत किया है। यह भी सही है कि भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों पर अभी तक भ्रष्टाचार का कोई सीधा आरोप नहीं लगा है, पर भ्रष्टाचार के आरोपी व्यक्तियों को अपने साथ लेकर या उनके सहारे राज्यों में सरकारें बदलने-बनाने का एजेंडा चलाकर पार्टी हमारी राजनीति के भ्रष्ट चेहरे को ही सामने ला रही है। विभिन्न राज्यों में दाग़ी व्यक्तियों के सहारे सत्ता पर कब्ज़ा करने के उदाहरणों को अब खोजना नहीं पड़ रहा। आये दिन ऐसे राजनेताओं के चेहरे सामने आ रहे हैं, जिन पर भाजपा नेताओं द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप लगाये जाते रहे थे और फिर उनके भाजपा में आते ही वे साफ-सुथरे बन गये! इसी संदर्भ में भाजपा को उसके विरोधी अक्सर ऐसी ‘वॉशिंग मशीन’ कहते रहते हैं जिसमें भ्रष्ट राजनेता बेदाग हो जाते हैं। भाजपा के नेता ऐसी बातों को पूरी तरह से अनसुना कर देते हैं।
आज आवश्यकता इस अनसुने को सुनने की है। वैसे तो राजनीति को शैतानों की अंतिम शरणस्थली कहा गया है और यह मान लिया गया है कि राजनीति में नैतिकता की अपेक्षा करना ही ग़लत है, फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि हमारी राजनीति संस्कारहीन और अनैतिक क्यों होती जा रही है? क्यों राजनीतिक दलों को आपराधिक तत्वों के सहारे राजनीति करने की मज़बूरी को झेलना पड़ता है और क्यों ऐसा नहीं हो पाता कि जनता ऐसे तत्वों को नकार दे।
यह अपने आप में विडंबना ही है कि हर रंग का राजनेता अपने बेदाग होने का दावा करता है और हमारी राजनीति ऐसे दावों का मजाक उड़ाती दिखती है। आज यह गिनना आसान नहीं है कि आज हमारे कितने बड़े नेताओं पर कितने बड़े-बड़े आरोप लगे हुए हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कई राजनेता राजनीतिक दलों और सरकारों में ऊंचे-ऊंचे पदों पर बैठे हुए हैं। सरकारें अक्सर अपने विरोधियों पर भ्रष्टाचार समेत अनेक आपराधिक कार्यों के आरोप लगाती हैं और अक्सर ऐसे आरोपी राजनीतिक स्वार्थों को साधने के लिए या तो नज़रंदाज कर दिये जाते हैं या फिर आरोप-मुक्त कर दिये जाते हैं।
असली एनसीपी का नेता होने का दावा करने वाले अजित पवार पर भाजपा कल तक भ्रष्टाचार का आरोप लगाती रही है। यही नहीं, तीन साल पहले जब अजित पवार के साथ मिलकर भाजपा के देवेंद्र फडणवीस ने सरकार बनायी थी तो रातों-रात अजित पवार पर चलने वाले मामले वापस ले लिए गये थे। आज उस अड़तालीस घंटे वाली सरकार की इसी कार्रवाई का नाम लेकर अजित पवार स्वयं को बेदाग बता रहे हैं।
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई जैसी संस्थाएं हमारे यहां भ्रष्ट नेताओं की छान-बीन करती हैं, पर अक्सर यह और ऐसी अन्य संस्थाएं सरकारों के राजनीतिक हितों की रक्षा ही करती दिखी हैं। जब ज़रूरत लगती है सरकारें इन एजेंसियों को अपने विरोधियों को सबक सिखाने के काम में लगा देती हैं और फिर सरकारों की सुविधा के अनुसार मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। सवाल उठता है इन एजेंसियों का दुरुपयोग कब और कैसे बंद होगा?
लेकिन इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मतदाता कब अपनी निर्वाचित सरकारों से यह पूछेगा कि उन्हें अनैतिकता से डर क्यों नहीं लगता? कब यह सवाल पूछा जायेगा कि वह कौन-सी गंगा है जिसमें डुबकी लगाकर कोई अपराधी आरोप-मुक्त हो जाता है? नहीं, राजनीतिक दल या राजनेता ऐसे सवाल नहीं उठायेंगे, यह सवाल देश के जागरूक नागरिक को उठाना होगा। हर नागरिक को अपने मुखिया से पूछना होगा कि उनकी गारंटी का क्या हुआ? नागरिक को अपने नेताओं से पूछना होगा कि वे झूठे आश्वासन क्यों देते हैं और क्यों उन्हें लगता है कि देश उनके हर गढ़े गये सत्य को, उनके हर अपराध को सुनता रहेगा, सहता रहेगा? और पूछना यह भी होगा कि सत्ता की इस राजनीति में कभी विचारों-सिद्धांतों के लिए कोई स्थान बनेगा या नहीं?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।