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शहरी जीवन बचाएंगे गांव के रोजगार

12:36 PM Jun 14, 2023 IST

सुबीर रॉय

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जिस कदर शहरों में आबादी बढ़ती जा रही है और परिणामस्वरूप मौजूदा शहरों की रिहायशी क्षमता फटने के कगार पर है, उसके समाधान हेतु सरकार लगभग आधा दर्जन नए शहर बनाने पर विचार कर रही है। इस प्रक्रिया की शुरुआत तब हुई जब 15वें वित्तीय कमीशन ने 8 नए शहर बनाने के लिए 8000 करोड़ रुपये अलग रखे और राज्यों की ओर से 26 प्रस्ताव मिले।

चूंकि प्रस्तावों का आकलन जारी है, सरकार के लिए यह जरूरी हो जाता है कि आगे शहरीकरण कैसा हो इसको लेकर विचार सुसपष्ट हो। इस पर एक बृहद दृष्टिकोण, क्या करना है और क्या नहीं करना है, इस समझ की जरूरत है। मुख्य ध्येय यह होना चाहिए कि जो राह चुनी जाए वह सबसे किफायती हो एवं लगाए धन से अधिकतम फायदा हो। इस प्राप्ति के लिए, नयी खोज से न्यूनतम मूल्य वाले समाधान देने होंगे। उद्देश्य केवल नए शहर बनाना नहीं अपितु बेहतर और बड़ी शहरी क्षमता बनाना होना चाहिए।

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रोचक रहेगा, यदि अलग हटकर सोचे गए उपायों के ध्यान का केंद्र एक और भीड़-भाड़ वाला शहर न पैदा करके छोटे एवं अपेक्षाकृत कम भीड़ वाले शहरी क्षेत्र बनाने पर हो। उद्देश्य एवं प्रयास यह हो कि नए वैकल्पिक शहर लोगों को अपनी ओर खींचें और उन्हें इन छोटे शहरों में रहना अधिक फायदेमंद लगे, जहां रोजमर्रा के अन्य खर्च कम हों। इससे बड़े शहरों पर आबादी का मौजूदा दबाव घटेगा। उदाहरणार्थ, बेंगलुरु में भीड़-भाड़ घटाने के लिए मैसूर में क्षमता बढ़ाई जाए।

बड़े शहरों में आबादी घनत्व घटाने का एक अन्य किफायती हल यह हो सकता है कि बजाय यह देखना कि समस्या कहां सबसे विकट है (शहर का केंद्र), शहर की परिधि से लगते क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। क्रियान्वयन योजना बनाते वक्त ध्येय अतिरिक्त शहरी क्षेत्र क्षमता बनाने का हो। नगर के केंद्र में उपायों पर लागत से कहीं कम में परिधि इलाके की नागरिक सुविधा क्षमता में विकास हो जाएगा। बेंगलुरु के एमजी मार्ग पर भीड़-भड़क्का कम करने के लिए व्हाइट फील्ड इलाके को विकसित किया जाए ताकि लोगों को खरीदारी के लिए एमजी मार्ग आने की जरूरत न रहे।

जिस तरह से वक्त के साथ हमारे शहरों का विस्तार हुआ है, परिधि के नगर निकाय एक तरह से मुख्य शहर का हिस्सा हैं। लेकिन वहां उपलब्ध सुविधाएं घटिया हैं, जिसकी वजह से बाशिंदों को बेहतर काम, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के लिए मुख्य नगर आना पड़ता है। कहने को यह इलाके शहरी विस्तार का हिस्सा हैं किंतु नागरिक सुविधाएं कमतर हैं, क्योंकि इन नगरीय निकायों को बजटीय राशि कम मिलती है।

इसलिए यह मांग बढ़ रही है कि वहां की प्राथमिक सुविधाएं जैसे कि पेयजल एवं सीवरेज सिस्टम में सुधार हो, कम से कम उस स्तर की, जो मुख्य शहर का नगर निगम मुहैया करवाता है। इन मांगों की पूर्ति के लिए, परिधि नगर निकायों को मुख्य नगर निगम से मिला दिया जाए और नाम में ‘बृहन’ जैसा शब्द जोड़ सकते हैं।

लेकिन जब नगर निगम इन नए इलाकों में सुविधाओं के लिए योजना बनाने बैठते हैं तो पाते हैं कि एक तो तंग गलियां, तिस पर पेय-जल की पाइपें नदारद और बरसाती पानी निकास-व्यवस्था शोचनीय है, जिससे मानसून में बाढ़ जैसी स्थिति और मच्छरों के प्रकोप से मलेरिया इत्यादि बीमारियां बनती हैं। इसका हल शहरों के साथ मौजूदा ग्रामीण इलाकों में नए उप-नगर बसाने में है, जो आगे चलकर मुख्य नगर का हिस्सा बन जाएंगे। लेकिन यह रूपांतर भूमि उपयोग पर नियोजित कार्य योजना के मुताबिक होना चाहिए। जो कुछ बेंगलुरु में हुआ, उससे बचने की जरूरत है, वहां शहर के दक्षिण-पूरबी सिरे पर एक आईटी कॉरिडोर बनाने का प्रस्ताव आया। लेकिन अमल से पहले प्रशासन ने पाया कि वहां तो पहले से गैर-नियोजित निर्माण हुआ पड़ा है।

भविष्य के परिधि-नगरों की योजना बनाते वक्त सोच बृहद रखनी जरूरी है। उद्देश्य मिश्रित उपयोग जगह बनाने पर हो, जहां पर लोग रहें और रोजगार भी वहीं हो और उन्हें मुख्य शहर न जाना पड़े, जिससे सड़कों पर दबाव बनता है, जैसा कि मुंबई में है, जहां उप-नगरीय नागरिक कामकाज की खातिर घंटों का सफर करके मुख्य शहर आते हैं। मुंबई का बांद्रा-कुर्ला परिसर, कोलकात्ाा का राजहाट और बेंगलुरु का व्हाइट फील्ड इलाका वह क्षेत्र हैं, जहां नए व्यावसायिक परिसर का निर्माण मुख्य शहर में सुधार उपायों पर आने वाली लागत के अंश में हो सकता है।

हमारे शहरों मे आबादी विस्फोटक रूप से बढ़ रही है, क्योंकि ग्रामीण अंचल के लोग बेहतर कमाई के लिए आकर बसते हैं। किंतु उन्हें अवैध मलिन बस्तियों में रहकर रोजगार तलाशना पड़ता है। सबसे बढ़िया और किफायती दीर्घकालीन हल नए शहर बनाना नहीं अपितु ग्रामीण इलाकों में रोजगार सृजन है ताकि लोगों को जरा-सी बेहतर कमाई के लिए शहरों का रुख न करना पड़े। प्रवासियों की यह संख्या कितनी विकराल है, इसका पता कोविड महामारी के दौरान हुए अचानक लॉकडाउन में करोड़ों लोग गांवों की ओर निकलने पर लगा। लोगों के जत्थे के जत्थे सैकड़ों किलोमीटर चलकर अपने-अपने गांव पहुंचे ताकि कम-से-कम भूख से तो नहीं मरेंगे, क्योंकि शहरों में तमाम उद्योग-धंधे बंद हो चुके थे और रहने का ठिकाना नहीं था।

नए शहर बनाने की सोचने की बजाय उनकी मलिन बस्तियों का उद्धार करने का कम खर्चीला तरीका ढूंढ़ना चाहिए, जैसा कि मुम्बई की धारावी झुग्गी बस्ती का धीमा पुनर्वास कार्य दर्शाता है, भूमि-विकास कार्य के लिए भूखंड व्यवसायियों को सौंपना कोई बहुत अच्छा विचार नहीं है। इसकी बजाय, सभी मलिन बस्तियों के लिए, ध्यान का केंद्र पेयजल आपूर्ति और स्वच्छता व्यवस्था बनाने और तंग गलियों में खड़ंजा बिछाकर पक्का करने पर होना चाहिए। एक मर्तबा यह हो जाए, तो वहां के बाशिंदे, जो एक तरह से अपने-अपने भूखंड के मालिक हैं, तो अपने खर्च पर घरों को सुधारकर पक्का कर लेंगे। इसको सही दिशा देने के लिए, प्रशासन को कुछेक सैकड़ा वर्ग-फीट का एक-कक्षीय घर (जिसमें रसोई और शौचालय भी हो) का मॉडल तैयार करके प्रेरित करना होगा। ऐसे घरों में 8 लोगों का परिवार पहले की अपेक्षा ज्यादा बेहतर ढंग से रह पाएगा और उनका रोजगार भी बना रहेगा।

अतएव, पूर्व अनुभव सुबूत हैं कि नए शहर बसाने का विचार कोई बेहतर हल नहीं है। इसकी बजाय नूतन उपायों से बहुत कम लागत पर विशाल नई शहरी क्षमताएं बनाई जा सकती हैं। अंतिम ध्येय वैसा शहर बनाना हो जिसकी परिकल्पना पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दी थी, जब दो दशक पहले, उन्होंने ग्रामीण अंचल शहरी सुविधा योजना सुझाई थी, जिसको ‘पूरा’ नाम दिया था।

लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।

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