जनतांत्रिक मूल्यों को नकारते असभ्य बोल
संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने की आवश्यकता और औचित्य को लेकर अब भी सवाल उठ रहे हैं। वैसे यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ दल महिला-आरक्षण जैसे ऐतिहासिक विधेयक के साथ विशेष अधिवेशन को जोड़कर नए संसद भवन को भी कुछ और विशेष बनाना चाहते होंगे। निश्चित रूप से इस विधेयक का पारित होना भारतीय जनतंत्र की एक विशेष उपलब्धि है। वर्षों से, दशकों से कहना चाहिए, यह मुद्दा चर्चा और विवाद का विषय बना रहा है। ऐसा नहीं है कि इस संदर्भ में पहल नहीं हुई, पर हर बार कोई न कोई पेंच पड़ जाता था। इस बार लोकसभा और राज्यसभा दोनों ने लगभग शत-प्रतिशत बहुमत से इसे पारित किया है। यह बात अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है। भले ही इसे तत्काल लागू न करा कर सत्तारूढ़ दल ने कोई खेल खेला हो, पर फिर भी शुरुआत का स्वागत होना ही चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर इसे लागू करने की दिशा में शीघ्र ही कोई कदम उठाया जायेगा। फिलहाल तो यह एक ऐसा चैक ही है जिस पर कोई तारीख ही नहीं है।
लेकिन इस विशेष अधिवेशन को महिला आरक्षण विधेयक के संदर्भ में ही याद किये जाने की प्रधानमंत्री की चाह, शायद पूरी नहीं हो पायेगी। नए संसद भवन के इस पहले अधिवेशन के बजाय यह बात हमेशा याद रखी जायेगी कि जिस तरह के अपशब्दों का इस्तेमाल इस अधिवेशन में किया गया, वैसा हमारे पिचहत्तर साल के संसदीय लोकतंत्र में कभी नहीं हुआ था। असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल की कहानी छोटी नहीं है, ऐसे शब्दों को लेकर एक पुस्तिका भी प्रकाशित की जा चुकी है और उसी के अनुसार न जाने कितनी बातों को संसदीय कार्रवाई से बाहर किया जा चुका है। आगे भी किया जाएगा। पर सवाल उठता है क्या मात्र इतना करना पर्याप्त है?
लोकसभा में बहस के दौरान सत्तारूढ़ दल के एक वरिष्ठ सदस्य ने बहुजन समाजवादी पार्टी के उतने ही वरिष्ठ सदस्य के संदर्भ में जिन शब्दों को काम में लिया है वह इतने घटिया हैं कि उन्हें लिखना भी उचित नहीं माना जायेगा। अध्यक्ष ने माननीय सदस्य के शब्दों को सदन की कार्रवाई से निकाल दिया है, और यह चेतावनी भी दी है कि आगे से फिर कभी भी ऐसे शब्दों को काम में लेंगे तो और कठोर कार्रवाई करनी पड़ेगी। सत्तारूढ़ दल के एक वरिष्ठ नेता, देश के रक्षा मंत्री, ने तभी अपनी पार्टी के सदस्य की इस शर्मनाक हरकत पर खेद प्रकट करना ज़रूरी समझा था। इस खेद व्यक्त करने को क्षमा मांगने के रूप में भी प्रसारित किया जा रहा है। पर सवाल अभद्र शब्दों का नहीं, उस बीमार मानसिकता का है जिसके चलते देश का कोई सांसद संसद-भवन में कार्रवाई चलने के दौरान ऐसी घटिया और नितांत आपत्तिजनक भाषा काम में लेते हुए हिचकता नहीं। देश भर में इस घटना की चर्चा हो रही है, पर संबंधित सदस्य ने अभी तक क्षमा मांगने की बात तो छोड़िए, खेद व्यक्त करना भी ज़रूरी नहीं समझा है। जब उनसे इस बारे में पूछा गया तो उनका कहना था, ‘नो कमेंट’, और वे अपनी कार में बैठकर आगे बढ़ गए थे। उनका यह मानना है कि मामला लोकसभा-अध्यक्ष के समक्ष है, इसलिए उन्हें चुप रहना चाहिए। काश! वे तब भी चुप रहते जब उन्होंने सदन में उन आपत्तिजनक शब्दों को काम में लिया था।
भाजपा के सांसद रमेश बिधूड़ी ने जो आपत्तिजनक और शर्मनाक बात कही थी वह सिर्फ बसपा के सांसद कुंवर दानिश अली के खिलाफ ही नहीं थी। वस्तुतः वे शब्द एक पूरी जमात के खिलाफ जाते हैं। जिस तरह से यह बात कही गयी थी, उसका सीधा-सा यही अर्थ निकलता है कि देश के अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति उनकी क्या राय है। देश का कोई भी विवेकशील नागरिक किसी समाज के प्रति ऐसी मानसिकता नहीं रख सकता। यह एक नितांत घटिया सोच की नितांत घटिया अभिव्यक्ति थी जो उस दिन देश की संसद में गूंजी।
सड़क की भाषा और अभिव्यक्ति का देश की संसद में पहुंचना अपने आप में एक दुखद स्थिति है। राजनीतिक विरोधियों के साथ वाद-विवाद जनतांत्रिक प्रणाली की आवश्यकता ही नहीं, विशेषता भी है। सांसदों में मतभेद होना भी स्वाभाविक है। मतभेदों की अभिव्यक्ति कटु भी हो सकती है। लेकिन जिस तरह की कटुता एक माननीय सांसद ने उस दिन सदन में दूसरे माननीय सांसद के प्रति दिखाई वह किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है। अब तो यह कल्पना करना भी मुश्किल लग रहा है कि आरोपी सांसद ने अपने साथी सांसद से अब आंख कैसे मिला पायेंगे।
जीवन में भाषा की मर्यादा बनी रहे, यह ज़रूरी है। उतना ही ज़रूरी यह भी है कि देश के नागरिक एक-दूसरे के प्रति संयत और भद्र बने रहें। देश के विधायकों-सांसदों का तो यह भी दायित्व बनता है कि वे अपनी कथनी-करनी से देश के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करें। पर यह जो उदाहरण माननीय सांसद ने उपस्थित किया है, किसी भी दृष्टि से क्षम्य नहीं है। इसके खिलाफ उचित और समुचित कार्रवाई होनी ही चाहिए।
सवाल सिर्फ अभद्र और अश्लील भाषा का नहीं है। संसद में हुआ यह घटनाक्रम हमारी संस्कृति और सभ्यता पर भी सवाल उठाता है। गुस्से में कभी कोई शब्द ऐसा निकल भी जाता है, पर किसी सभ्य और सुसंस्कृत समाज की पहचान यह है कि ऐसा कुछ हो जाने पर तत्काल क्षमा मांग ली जाये–सिर्फ शब्दों से नहीं, मन से क्षमा मांगी जाये। पर हमारी राजनीति में ऐसी परंपरा शायद अब नहीं रही। राजनीतिक विरोधी को अपना दुश्मन मानने की यह प्रवृत्ति घटिया मानसिकता ही नहीं दर्शाती, जनतांत्रिक मूल्यों को भी नकारती है। कुछ अर्सा पहले इस मामले में नहीं एक अन्य संदर्भ में देश के संसदीय मामलों के मंत्री ने एक सांसद के ‘अनुचित व्यवहार’ के संदर्भ में कहा था, ‘मैं तो उन्हें समझाने की कोशिश करूंगा, पर अंततः उनका व्यवहार उनकी संस्कृति को ही दर्शाता है।’ निश्चित रूप से हमारी संस्कृति घटिया नहीं है, घटिया सोच और घटिया शब्दों के लिए हमारी गौरवशाली संस्कृति में कोई स्थान नहीं है। दुर्भाग्य से, यह घटियापन हमारी राजनीति में बार-बार उजागर हो रहा है। इस पर रोक लगनी ही चाहिए।
दुर्भाग्य तो यह भी है कि हमारे बड़े नेता भी अभद्र भाषा और अशालीन अभिव्यक्ति से स्वयं को बचा नहीं पाते। नियमों से, कानून से इस प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश लग सकता है, पर असली अंकुश तो व्यक्ति की अपने सोच से ही लगेगा। आवश्यकता घटिया सोच को बदलने की है। बिधूड़ी जैसे हमारे प्रतिनिधि जितना जल्दी इस बात को समझ लेंगे, उतना बेहतर है। किसी भी सभ्य समाज में उनके जैसा व्यवहार अस्वीकार्य है, यह बात उन्हें समझनी होगी, उन्हें समझानी होगी। देखते हैं लोकसभा अध्यक्ष यह कैसे समझाते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।