रास्तों की बेरुखी
सुरेश ओबराय
नि:शब्द हूं! स्तब्ध हूं!
क्या हो रहा है क्यों हो रहा है?
हर कोई यहां-वहां रो रहा है
पीड़ाओं में घिरा शोकग्रस्त हूं।
नि:शब्द हूं! स्तब्ध हूं!
मैं गूंगा-बहरा हो गया हूं
एक सागर गहरा हो गया हूं
कुछ जीतों के आभास लेकर
फिर भी मैं परास्त हूं!
नि:शब्द हूं! स्तब्ध हूं!
जीने के साथ-साथ मर रहा हूं
आगे क्या होगा बहुत डर रहा हूं
रोशनियों से भरा था कभी
अब सूरज की तरह अस्त हूं!
नि:शब्द हूं! स्तब्ध हूं!
रवानी से भरी एक लहर था
चहल-पहल भरा एक शहर था
रास्तों की बेरुखी से आहत हुआ
वक्त की चोट से ध्वस्त हूं!
नि:शब्द हूं! स्तब्ध हूं!
चुप्पियां
सहमी-सहमी चुप्पियां
चेहरा नौचती रहीं
मेरी उमंगें क्या सोचती रहीं?
उड़ती फिरती तितलियां
आंखें दबोचती रहीं
धुंधली पलकें क्या पौंछती रहीं?
सपनों की चाल में कैसे
खो गये थे हम,
ये सोचते-समझते
सो गये थे हम,
दबी-दबी सिसकियां
मुस्कानें रौंदती रहीं
सहमी-सहमी चुप्पियां
चेहरा नौचती रहीं।
मौन
मेरी आवाज में
तुम्हारा मौन है
तुम्हारे मौन में
कहो कौन है?
अपने दिल की
तुम कब कहोगे?
चुपके-चुपके तुम
यूं ही रहोगे?
मेरी खामोशियां
मेरे कहकहे सब गौण हैं
मेरी आवाज में
तुम्हारा मौन है!