आपदा भी लाती हैं पहाड़ों में सड़कें
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
पहाड़ की सड़कें स्थानीय लोगों के परिप्रेक्ष्य में आपदाओं के उत्प्रेरक के तौर पर देखी जा रही हैं। वर्तमान में हिमाचल के कई जिलों व उत्तराखंड के चमोली, टिहरी, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ बागेश्वर के कई गांवों में गिरते शिलाखंडों, मलबे, दरकती जमीनों से लोग भयभीत हैं। सौ से अधिक ऐसे गांवों के भयभीत लोग जो अपने गांवों को कहीं अन्यत्र पुनर्वासित देखना चाहते हैं, अपने कष्टों का कारण गांवों के ऊपर या नीचे से जाने वाली सड़कों को मानते रहे हैं। परन्तु साथ ही लोग सड़कों के पास रहने का लोभ भी नहीं रोक पाते हैं। सड़कें बेहतर भविष्य की आस तो जगाती हैं वहीं सड़कों के बनने के बाद आसपास की जमीनों के भाव भी बढ़ जाते हैं।
चौड़ी और फोरलेन सड़कें बनाने के लिए पहाड़ों को ज्यादा गहराई तक काटना पड़ता है। उन्हें ज्यादा विस्फोटों से उड़ाना होता है। ऐसे में सड़कजनित आपदाएं भी ज्यादा गहराने और पसरने लगती हैं। जगह-जगह ऐसे लिखे बोर्ड लगे हैं कि सड़कों के इन हिस्सों में रुके रहना भी खतरनाक है। वाहन चालकों को सलाह रहती है कि वे चलते रहें, रुके नहीं। ऐसी घटनाएं हुई हैं जब खड़े वाहनों व चलते लोगों पर ऊपर से आकर मलबा-पत्थर गिरे हैं और लोगों की मौतें हुई हैं।
सड़कों को लेकर तीर्थयात्रियों व पर्यटकों का फंसना ही खबर बनती है। लेकिन पहाड़ी सड़कों से आने वाली आपदाओं के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है। उत्तराखंड में सड़कों के संदर्भ में नुकसान मुख्य मार्गों से हटकर, शाखा मोटर सड़कों पर भी बहुत होता है। विडम्बना यह भी है कि तात्कालिक सड़कों को खोलने के लिए जो उपाय किये जाते हैं, उनसे भी कई बार समस्याएं बढ़ जाती हैं। बड़ी-बड़ी मशीनें तेजी से गहराई तक पहाड़ों को काटकर तात्कालिक रास्ता तो साफ कर देती हैं, परन्तु इस प्रकार जो स्थिर ढाल अस्थिर हो जाते हैं और उन्हें ठोक-पीटकर साथ ही साथ, जो स्थिर करने की आवश्यकता होती है, वह नहीं किया जाता है। ऐसी स्थितियों में भारी बोल्डर्स लुढ़कते रहते हैं। सड़कों के समीप भयाक्रांत अधिकांश ग्रामीणों का यही कहना है कि सड़कों पर रोक दीवार अवश्य बनाई जानी चाहिए।
सड़कों के अपने होनेभर के महत्व के अलावा यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि सड़कों से क्या आ रहा है, क्या जा रहा है। सड़कों को बनाने का उद्देश्य क्या है। सड़कें जरूरत पूरा कर रही हैं या जरूरतों को बढ़ा रही हैं। अंतराल के बीहड़ क्षेत्रों में, एक खदान मालिक खनिजों के दोहन को आसान बनाने के लिए या बड़ी-बड़ी परियोजनाओं वाले भारी वाहनों व मशीनों को पहुंचाने के लिए सड़क बनवा सकता है। राजनीतिक, सामरिक व व्यावसायिक कारणों से भी सड़कें स्वीकृत की जाती हैं।
पहाड़ों में सामाजिक जानकारों व चिंतकों को यह सवाल दशकों से बेचैन किये हुए है कि ऐसा क्यों होता है कि पहाड़ों में अंतराल तक तो छोटे-बड़े भार वाहन भर-भर कर पहुंचते हैं, परन्तु वहां से लौटते हुए अधिकांश खाली ही होते हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि पहाड़ प्रमुखतः खरीददार हैं, विक्रेता नहीं। क्षेत्र की यह वांछित आर्थिक दिशा नहीं हो सकती है।
आज इन सवालों पर बेहद संजीदगी से विचार करना जरूरी हो गया है, खासकर तब जब सैकड़ों उदाहरण यह दिखा रहे हैं कि सड़कों की राह पहाड़ों में, खेत, मकान, दुकान तक निरंतरता वाली आपदाएं भी पहुंचाती है। अन्यत्र भी विश्व के पर्वतवासी, सड़कों को लेकर, इन्हें सदैव खुशहाली के वाहक के रूप में नहीं देखते हैं।
पहाड़ों के संदर्भ में एक विडम्बना भरा तथ्य यह भी है कि कोई जरूरी नहीं है कि पहाड़ों में मोटर सड़कों की दूरियां कम हुई हों। ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिल जायेंगे जब दो गांवों के बीच की पैदल दूरी आधा किलोमीटर हो, किन्तु मोटर सड़कों से वह दूरी सात किलोमीटर हो। परन्तु अब सड़कों पर भरोसा करके अवरोधित होने पर, उन्हीं कम दूरियों को पैदल तय करने के बजाय, घंटों सड़क खुलने का लोग इंतजार करते हुए भी मिल जायेंगे।
सड़कों पर अति विश्वास के कारण किसानों व बागवानों को भारी नुकसान भी उठाना पड़ जाता है। ठीक उस समय जब फलों की या खेती की अन्य नकदी फसलें तैयार रहती हैं और उनको बेचने का समय रहता है, उसी समय मोटर सड़कें, कई-कई दिनों तक अवरोधित हो जाती हैं। रज्जु मार्ग, खच्चर, कुछ सड़कें, जंगल के कानून, कहीं जीप, कहीं वाहन, कहीं भारी वाहन, जल मार्ग चौड़ाई कम सब मौसमी सड़कें कई जगह राजनीतिक दबाव में तो बन जाती हैं, लेकिन नेता इतना दबाव नहीं कायम कर सकते हैं कि बड़ी बसों का चलना वहां सुनिश्चित करवा सकें। क्योंकि परिवहन कम्पनियों को वहां फायदा नहीं हाेता है। छोटे वाहन स्वरोजगार भी देते हैं।
सामाजिक, गांधीवादी व पर्यावरण कार्यकर्ता, चमोली जिले में सड़कों के बाद भूस्खलन में बढ़ोतरी की बात तस्वीरों व आंकड़ों से दशकों से बताते रहेे हैं। उनका कहना है कि सड़कें कहां बनाई जा सकती हैं, कैसे बनाई जानी चाहिए, इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
पहाड़ों में सड़कों के पास अनियोजित ढंग से और बिना जल निकासी प्रणाली का ध्यान रखते हुए, कई बार बरसाती नालों के मुहाने पर भी जब मकान व दुकानें बनने लगती हैं, तो पहले जिन जगहों पर आबादी विहीन होने के कारण जान-माल हानि का संभावनाएं न के बराबर रहती थीं, वहां भी तबाही आनी शुरू हो जाती है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि आदर्श रूप से पहाड़ी सड़कें आधा कटान-आधा भरान की पद्धति से बननी चाहिए। नदी-नालों व खेतों में मलबा बेतरतीब ढहा देने की जगह, उसका रचनात्मक उपयोग होना चाहिए।