रेल पथ की स्वच्छता का तैयार हो रोडमैप
पंकज चतुर्वेदी
हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने एक स्वत: संज्ञान मामले में कड़े शब्दों में कहा कि रेलवे थोक में कचरा पैदा कर रहा है क्योंकि पटरियों पर पाया जाने वाला अधिकांश कचरा ट्रेनों से आता है। न्यायालय ने कहा कि रेलवे का कर्तव्य है कि वह पटरियों के करीब कचरा फेंकना बंद करे। खास बात यह कि पटरियों पर फेंका गया कचरा जल निकायों में बह जाता है जिससे पर्यावरण को काफी नुकसान होता है। हालांकि स्टेशनों के पास कचरे का उचित प्रबंधन किया जाता है, लेकिन पटरियों के किनारे से कचरे को हटाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए जाते हैं। न्यायालय ने कहा कि डंपिंग का एक कारण डिब्बों में पर्याप्त डस्टबिन नहीं होना है।
भारतीय रेल 66 हजार किलोमीटर से अधिक के रास्तों के साथ दुनिया का तीसरा सबसे वृहत् नेटवर्क है, जिसमें हररोज बारह हजार से अधिक यात्री रेल और करीब सात हजार मालगाड़ियां 24 घंटे दौड़ती हैं। अनुमान है, इस नेटवर्क में हररोज करीब दो करोड़ तीस लाख यात्री तथा एक अरब मीट्रिक टन सामान की ढुलाई होती है। विडंबना है, पूरे देश की रेल पटरियों के किनारे गंदगी, कूड़े और सिस्टम की उपेक्षा की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। कई जगह तो प्लेटफार्म भी अतिक्रमण, अवांछित गतिविधियों और कूड़े का ढेर बने हैं।
देश की राजधानी दिल्ली से आगरा के रास्ते दक्षिणी राज्यों, सोनीपत-पानीपत के रास्ते पंजाब, गाजियाबाद की ओर से पूर्वी भारत, गुरुग्राम के रास्ते जयपुर की ओर जाने वाले किसी भी रेलवे ट्रैक को दिल्ली शहर के भीतर ही देख लें तो जाहिर हो जाएगा कि देश के असली कचरा-घर तो रेल पटरियों के किनारे ही संचालित हैं। सनद रहे, ये सभी रास्ते विदेशी पर्यटकों के लोकप्रिय रूट हैं और जब दिल्ली आने से 50 किलोमीटर पहले से ही पटरियों के दोनों तरफ कूड़े, गंदे पानी, बदबू का अम्बार दिखता है तो उनकी निगाह में देश की कैसी छवि बनती होगी। सराय रोहिल्ला स्टेशन से जयपुर जाने वाली ट्रेन लें या अमृतसर या चंडीगढ़ जाने वाली वंदे भारत, जिनमें बड़ी संख्या में एनआरआई भी होते हैं, गाड़ी की खिड़की से बाहर देखना पसंद नहीं करते। इन रास्तों पर रेलवे ट्रैक से सटी झुग्गियां, खुले में शौच जाते लोग उन विज्ञापनों को मुंह चिढ़ाते दिखते हैं जिनमें सरकार के स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों के आंकड़े होते हैं।
असल में रेल पटरियों के किनारे की कई-कई एकड़ भूमि अवैध अतिक्रमणों की चपेट में है। इन पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भूमाफिया का कब्जा है जो वहां रहने वाले गरीब मेहनतकश लोगों से वसूली करते हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोगाें के जीविकोपार्जन का जरिया कूड़ा बीनना या कबाड़ी का काम करना ही है। ये पूरे शहर का कूड़ा जमा करते हैं, अपने काम का सामान निकाल कर बेच देते हैं और बकाया को पटरियों के किनारे ही फेंक देते हैं, जहां धीरे-धीरे गंदगी के पहाड़ बन जाते हैं। यह भी आगे चलकर नई झुग्गी का मैदान होता है। दिल्ली से फरीदाबाद रास्ते को ही लें, यह पूरा औद्योगिक क्षेत्र है। हर कारखाने वाले के लिए रेलवे की पटरी की तरफ का इलाका अपना कूड़ा, गंदा पानी आदि फेंकने का नि:शुल्क स्थान होता है। वहीं इन कारखानों में काम करने वालों के आवास, नित्यकर्म का भी बेरोकटोक गलियारा रेल पटरियों की ओर ही खुलता है।
कचरे का निपटान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है। यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े के महज पांच प्रतिशत का ईमानदारी से निपटान हो पाता है। दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष-अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है या फिर पटरियों के किनारे फेंक दिया जाता है।
पटरियों के किनारे जमा कचरे में खुद रेलवे का भी बड़ा योगदान है। खासकर शताब्दी, वंदे भारत, राजधानी जैसी प्रीमियम गाड़ियों में, जिसमें ग्राहक को अनिवार्य रूप से तीन से आठ बार तक भोजन परोसने होते हैं। इन दिनों पूरा भोजन पेक्ड और सिंगल यूज बर्तनों में ही होता है। हर रोज अपना मुकाम आने से पहले खानपान व्यवस्था वाले कर्मचारी बचा भोजन, बोतलें, पैकिंग सामग्री के बड़े-बड़े थप्पे चलती ट्रेन से पटरियों के किनारे फेंक देते हैं। यदि हर दिन एक रास्ते पर दस डिब्बों से ऐसा कचरा फेंका जाए तो जाहिर है कि एक साल में उस वीराने में प्लास्टिक जैसी नष्ट न होने वाली चीजों का अम्बार हाेगा। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाइक्लिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। उल्लेखनीय है, यही हाल इंदौर ,पटना, बंगलूरु या गुवाहाटी या फिर इलाहबाद रेलवे ट्रैक के भी हैं। शहर आने से पहले गंदगी का अम्बार पूरे देश में एक समान ही है।
राजधानी दिल्ली का हो या फिर दूरस्थ कस्बे का रेलवे प्लेटफार्म, निहायत गंदे, भीड़भरे, अव्यवस्थित व अवांछित लोगों से भरे होते हैं, जिनमें भिखारी, अवैध वेंडर और यात्री को छोड़ने आए रिश्तेदारों से लेकर भांति-भांति के लोग होते हैं। ऐसे लोग रेलवे की सफाई के सीमित संसाधनों को तहस-नहस कर देते हैं। कुछ साल पहले बजट में रेलवे स्टेशन विकास निगम के गठन की घोषणा की गई थी, जिसने रेलवे स्टेशन को हवाई अड्डे की तरह चमकाने के सपने दिखाए थे। कुछ स्टेशनों पर काम भी हुआ, लेकिन जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है और जिन रास्तों से यात्री रेलवे व देश की सुंदर छवि देखने की कल्पना करता है, उसके उद्धार के लिए रेलवे के पास न ताे कोई रोडमैप है और न ही परिकल्पना।