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नदियां अपने राेके रास्ते को याद रखती हैं

06:19 AM Jul 11, 2023 IST
पंकज चतुर्वेदी

पहली बारिश में ही गुरुग्राम दरिया बन गया, बीते पंद्रह दिनों में विकास और समृद्धि के प्रतिमान दिल्ली-जयपुर हाईवे पर बार-बार जलभराव के कारण जाम लग चुके हैं। ऐसा बीते पांच सालों से हर साल हो रहा है। नाली बनती है, फ्लाईओवर बनते हैं लेकिन बरसात होते ही जल वहीं आ जाता है। यह सभी जानते हैं कि असल में जहां पानी भरता है, वह अरावली से चल कर नजफगढ़ में मिलने वाली साहबी नदी का हजारों साल पुराना मार्ग है, नदी सुखाकर सड़क बनाई गई है। लेकिन नदी भी इंसान की तरह होती है, उसकी याददाश्त होती है, वह अपना रास्ता 200 साल नहीं भूलती। अब समाज कहता है कि उसके घर-मोहल्ले में जल भर गया, जबकि नदी कहती है कि मेरे घर में इंसान बलात‍् कब्जा किये हुए हैं। देश के छोटे-बड़े शहर- कस्बों में कंक्रीट के जंगल बोने के बाद जलभराव एक स्थायी समस्या है और इसका मूल कारण है कि वहां बहने वाली कोई छोटी-सी नदी, बरसाती नाले और जोहड़ों को समाज ने अस्तित्वहीन समझ कर मिटा दिया।
यह तो अब समझ आ रहा है कि समाज, देश और धरती के लिए नदियां और बरसाती नाले बहुत जरूरी हैं, लेकिन अभी यह समझ में आना शेष है कि छोटी नदियों और बरसाती नालों पर ध्यान देना अधिक जरूरी है। गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है, पर ये नदियां बड़ी इसीलिए बनती हैं क्योंकि इनमें बहुत-सी छोटी नदियां आकर मिलती हैं। यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदियां भी सूखी रहेंगी। यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा। बरसाती नाले अचानक आई बारिश की असीम जलनिधि को अपने में समेट कर समाज को डूबने से बचाते हैं।
छोटी नदियां और नाले अक्सर गांव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहते हैं। कई बार एक ही नदी के अलग-अलग गांव में अलग-अलग नाम होते हैं– कभी वह नाला कहलाती है, कभी नदी। ऐसी कई जलनिधियों का तो रिकार्ड भी नहीं है। हमारे लोक समाज और प्राचीन मान्यता नदियों और जल को लेकर बहुत अलग थी, बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो। बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए। कोई बड़ा पर्व या त्योहार हो तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें। छोटी नदी या तालाब या झील के आसपास बस्ती हों। यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपड़े धोने, मवेशी आदि के लिए। पीने के पानी के लिए घर-आंगन, मोहल्ले में कुआं, जितना जल चाहिए, श्रम करिए, उतना ही रस्सी से खींच कर निकालिए। अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा, यदि तालाब और छोटी नदी में पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की कमी नहीं होगी।
एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी नदियां हैं, जो उपेक्षित हैं, उनके अस्तित्व पर खतरा है। उन्नीसवीं सदी तक बिहार (आज के झारखंड को मिलाकर) में कोई छह हज़ार नदियां हिमालय से उतर कर आती थीं। आज इनमें से महज 400 से 600 का ही अस्तित्व बचा है। मधुबनी, सुपौल में बहने वाली तिलयुगा नदी कभी कोसी से भी विशाल हुआ करती थी, आज उसकी जलधारा सिमट कर कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है। सीतामढ़ी की लखनदेई नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गईं। नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द के साथ-साथ चलने की कहानी देश के हर जिले और कस्बे की है। लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है; उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही है कि धरती की कोख में जल भंडार तभी लबालब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया हंसती-खेलती हों।
अंधाधुंध रेत खनन, जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़क्षेत्र में स्थायी निर्माण ही छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको शातिर तरीके से नाला बता दिया जाता है। जिस साहबी नदी पर शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत-सा रिकार्ड ही नहीं है। झारखंड-बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदियां गुम हो गईं। हम यमुना में पैसा लगाते हैं लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं– कुल मिलाकर यह नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करने जैसा है।
छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं होती, उसके चारों तरफ समाज भी होता है और पर्यावरण भी। नदी किनारे किसान भी हैं और कुम्हार भी, मछुआरा भी और धीमर भी। नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से लेकर कुएं तक में जल का संकट हुआ– सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं है जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो। नदी-तालाब से जुड़कर पेट पालने वालों का जब जल-निधियों से आसरा ख़त्म हुआ तो मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा। इससे एक तरफ जल-निधियां दूषित हुईं तो दूसरी तरफ बेलगाम शहरीकरण के चलते महानगर अर्बन स्लम में बदल रहे हैं। स्वास्थ्य, परिवहन और शिक्षा के संसाधन महानगरों में केन्द्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक- आर्थिक संतुलन भी इससे गड़बड़ा रहा है। जाहिर है कि नदी-जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है।
सबसे पहले छोटी नदियों और बरसाती नालों का एक सर्वे और उसके जलतंत्र का दस्तावेजीकरण हो, फिर छोटी नदियों की अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को मानव-द्रोह अर्थात‍् हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए। नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें। नदी में पानी रहेगा तो तालाब, जोहड़, समृद्ध रहेंगे और कुओं में भूजल होगा। स्थानीय इस्तेमाल के लिए पारम्परिक तरीके जीवित कर वर्षा जल की एक-एक बूंद एकत्र की जाए; नदी के किनारे कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक तंत्र विकसित हों। सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिम्मा स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए, जैसे कि मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के लिए जल-पंचायत हैं।
जरा बारीकी से देखें जो छोटी नदियां बरसात में हर बूंद को खुद में समेट लेती थीं, दो महीने उनका विस्तार होता था, फिर वे धीरे-धीरे स्थानीय उपयोग और मध्यम नदियों को अपनी जलनिधि साझा करती थीं, सो कभी बाढ़ आती नहीं थी। अब ऐसी छोटी नदियों के मुख्यधारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है। नदी के कछार ही नहीं, प्रवाह मार्ग पर भी लोग मकान बना लेते हैं। कई जगह धारा को तोड़ दिया जाता है। साल के अधिकांश महीनों में छोटी नदियां पगडंडी और ऊबड़-खाबड़ मैदान के रूप में तब्दील होकर रह जाती हैं।
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं। ऐसे में छोटी नदियां बाढ़ से बचाव के साथ-साथ धरती के तापमान को नियंत्रित रखने, मिट्टी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं। नदी तट से अतिक्रमण हटाने, उसमें से बालू-रेत उत्खनन को नियंत्रित करने, नदी की गहराई के लिए उसकी समय-समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है; सबसे बड़ी बात- समाज यदि इन नदियों को अपना मानकर सहेजने लगे तो इससे समाज का ही भविष्य उज्ज्वल होगा।

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लेखक पर्यावरण विषयों के जानकार हैं।

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