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इस्राइल में कामगार भेजने के जोखिम

06:29 AM Feb 01, 2024 IST
इस्राइल में कामगार भेजने के जोखिम
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वप्पला बालाचंद्रन

ऐसी खबरें आई हैं कि राष्ट्रीय कौशल विकास निगम और राज्य रोजगार विभाग ने इस्राइल भेजने के लिए भारतीय कामगारों की भर्ती की है। कहा गया है कि हरियाणा कौशल रोजगार निगम ने हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से संबंधित लगभग 550 प्रत्याशियों का पंजीकरण किया है। जैसा कि हालिया ‘डंकी रूट’ फिल्म में भी दिखाया गया है, लोगबाग 40-50 लाख रुपये चुकाकर अवैध दलालों के जरिए विदेश जाते हैं। लेकिन इन युवकों ने उनका रुख करने की बजाय यह सरकारी विकल्प चुना है।
जहां विदेशों में रोजगार प्राप्ति के लिए सरकारी राह को तरजीह देने की बात कही जा रही है वहीं चिंतातुर सूचना है कि गंतव्य स्थान पर आप्रवासी कामगारों के हित सुनिश्चित करने के लिए जो कायदे-कानून और अनिवार्य आप्रवासन प्रक्रिया बनी है, इन चयनित युवाओं को उससे नहीं गुजरना होगा। खबरें यह भी बताती हैं कि इनके सिर पर बीमा एवं मेडिकल कवरेज और अन्य गारंटियों जैसा सुरक्षा तंत्र भी नहीं होगा, जबकि विदेश जाकर रोजगार करने वालों के लिए सरकार ने इन्हें अनिवार्य बना रखा है। बताया जा रहा है कि कुछ श्रमिक यूनियनें इस्राइल वाले मामले पर आक्रोशित हैं और न्यायालय से राहत पाने का इरादा रखती हैं।
अगर यह सब सच है, तो इस योजना पर अमल न करने की सलाह है। विदेशी मुद्रा भंडार में हमारे श्रमिकों का योगदान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुकाबले हमेशा अधिक रहा है। वर्ष 2023 में विदेशी मुद्रा की मुख्य आमद भारतीय आप्रवासी कामगारों द्वारा भेजा पैसा है और इस बार रिकार्ड 125 बिलियन डॉलर आए। जबकि इसी कालखंड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश केवल 70.9 बिलियन डॉलर रहा।
यहां हमें जून, 2014 का मोसूल कांड याद रखने की भी जरूरत है। उस वक्त, दुर्दांत ‘इस्लामिक स्टेट’ आतंकी संगठन ने इराक के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसूल को कब्जा लिया था और लगभग 40 आप्रवासी भारतीय कामगार लापता हो गए थे। लंबे समय तक सरकार तीसरे पक्ष के जरिए इनकी खोज करती रही और प्राप्त संकेतों के आधार पर मान लिया कि वे सुरक्षित होंगे। सामान्यत: महज खुफिया सूत्रों के जरिए पाई जानकारी के आधार पर सरकार द्वारा संसद में कोई निश्चित बयान देना बनता नहीं। हमारी सरकार अपने रुख पर तब भी कायम रही जब अगवा किए 40 श्रमिकों में एक हरजीत मसीह ने दावा किया शेष 39 सहयोगियों को आईएस ने मार डाला है। मसीह किसी तरह उनकी चंगुल से भाग निकला और भारत पहुंचा था।
मार्च, 2018 में जाकर सरकार ने स्वीकार किया कि वे मारे जा चुके हैं और मोसूल के उत्तर-पश्चिम में स्थित बादोश में उनकी सामूहिक क्रब मिली है, उनकी शिनाख्त की तस्दीक डीएनए टेस्ट से हुई। आगे चलकर मिली जानकारी के आधार पर कड़ी जुड़ी कि पहले बंदियों को एक कपड़ा उद्योग के परिसर में कैद रखा गया था। मसीह के भाग निकलने के बाद, उन्हें बादोश जेल भेज दिया था। इराकी प्रशासन की मदद से की गई छानबीन बादोश की सामूहिक कब्र ले गई, शव खोद निकालने के बाद पुष्टि हुई कि उनके शारीरिक एवं अन्य चिन्ह स्थानीयों से भिन्न हैं जैसे कि लंबे बाल, गैर-इराकी जूते और पहचान पत्र इत्यादि। उनके अवशेषों को डीएनए टेस्ट के लिए बगदाद भेजा गया। इसके बाद ही हमारी सरकार ने संसद में उनकी मौत की बात स्वीकारी थी।
साल 1916 में, चीन में जनरल युआन शिकाई के नेतृत्व वाली बेइयांग सरकार ने प्रथम विश्व युद्ध में लगभग 1 लाख 40 हजार चीनी कामगार बतौर ‘स्वयंसेवक’ यूरोप भेजकर इसी किस्म की गलती थी। शिकाई ने 1912 में आखिरी गद्दीनशीन बाल-सम्राट पुई को अगवा कर लिए जाने के बाद राजसत्ता संभाली थी। उसकी महत्वाकांक्षा खुद राज करने की थी और सुन यात-सेन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों से दरपेश खतरे से निजात पाने के लिए वह ब्रिटेन और फ्रांस की सहायता चाहता था। इस मंतव्य की पूर्ति के लिए, गुप्त संपर्कों के जरिए चली वार्ता में, उसने युद्ध में चीनी सैनिकों को भेजने की पेशकश के साथ उन मुल्कों का समर्थन पाना चाहा। उसकी मंशा जर्मनी से शानडोंग पुनः छीनने की थी, जिसे उसने 1898 से जबदस्ती से कब्जा रखा था। इस तरह युद्ध उपरांत वह अपने साम्राज्य का विस्तार और बड़ी ताकतों के खेमे में होने की हसरत रखता था। हालांकि ब्रिटेन ने उसकी सीधी सैन्य पेशकश को खारिज कर दिया क्योंकि यह उसके अपने साम्राज्यवादी हितों के विरुद्ध जाती थी। जैसा कि साउथ चाईना मॉर्निंग पोस्ट के एक लेख में हांगकांग यूनिवर्सिटी के इतिहासकार शू गुओकी को उद्धृत करते हुए बताया गया है ‘तब यह होने पर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को बल मिलता, क्योंकि ठीक इसी प्रकार की मांगें स्वाधीनता सेनानी ब्रितानी हुकूमत से करने लगते।’
हालांकि, ब्रिटेन को लड़ाकू चीनी दस्तों से इतर ‘स्वयंसेवक’ पाने से परहेज़ नहीं था। स्मिथसॉनियन मैग्ज़ीन (2017 अंक) में लॉर्रेन बॉइशोनिउल के लेख में इसकी तफ्सील दी गई है। वह बताती हैं कि प्रथम विश्व युद्ध में गैर-यूरोपियन कार्यबलों में सबसे बड़ी गिनती चीनी ‘स्वयंसेवकों’ की थी। उन्हें खंदके खोदने या बारूदी सुरंगें बिछाने जैसे काम काम दे रखे थे। चूंकि चीन ने आधिकारिक तौर पर महायुद्ध में खुद को निष्पक्ष बता रखा था, इसलिए ब्रिटेन, फ्रांस और रूस को ‘स्वयंसेवी श्रमबल’ भेजने के लिए व्यापारिक कंपनियां बनाने की आड़ ली गई। सबसे बड़ी कंपनी तियानजिन की हुईमिन थी। इस अर्ध-सरकारी प्रतिष्ठान की स्थापना मई, 1916 में की गई और इसका संबंध राष्ट्रपति युआन शिकाई के नज़दीकी और काबीना मंत्री लियांग शीयई से था। हुईमिन ने चीनी कामगारों से भरे लगभग 25 जलपोत भेजे थे, जिनका काम टैंकों की मरम्मत, साम्रगी जोड़कर बम बनाना, सैन्य आपूर्ति और गोला-बारूद पहुंचाना था और इस तरह लड़ाई का नक्शा बदलने में सहायक रहे। इन मजदूरों में अधिकांश प्रशांत महासागर और कनाडा वाले जलमार्ग से होकर यूरोप पहुंचे थे। इन्हें ले जा रहे जहाजों में एक, फ्रांसीसी जलपोत ‘एथोस’ पर 900 चीनी श्रमिक सवार थे, का जर्मन की यू-बोट ने निशाना बनाया और 543 चीनी मारे गए। इस घटना के बाद, 14 अगस्त, 1917 के दिन चीन ने आधिकारिक रूप से जर्मनी के विरुद्ध युद्ध का ऐलान कर दिया।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मारे गए कुल चीनियों की सटीक संख्या विवादित है। जहां यूरोपियन अनुमानों में यह गिनती 2,000 है वहीं चीनी सूत्रों का मानना है कि गोलीबारी, बारूदी सुरंगों और स्पैनिश फ्लू से मरने वाले चीनियों की संख्या लगभग 20000 होगी। बताया जाता है कि फ्रांस स्थित नॉल्ले-सुर-मेर कब्रिस्तान में 838 चीनियों की कब्रें हैं। दक्षिण एशिया मॉर्निंग पोस्ट द्वारा बनाई मल्टी-मीडिया प्रस्तुति में दिखाया गया है कि चीनियों ने खंदके खोदी, नॉर्मेंडी में टैंकों की मरम्मत की और डनकर्क तक युद्धक सामग्री पहुंचाई। ब्रिटिश फौज के साथ मिलकर काम करते हुए वे इराक के बसरा तक गए। यह प्रस्तुति दिखाती है कि दक्षिण इराक के बसरा की क्रबों में सैकड़ों चीनी श्रमिकों के अवशेष हैं, जो ओट्टोमन साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध में ब्रिटिश सेना के लिए जल-आपूर्ति करते मारे गए थे।
संयुक्त राष्ट्र के संगठन कहते आए हैं कि 7 अक्तबूर, 2023 के दिन हमास द्वारा किए हमले और गाज़ा पर इस्राइल की जवाबी बमबारी और सैन्य चढ़ाई के बाद से इस्राइल-पश्चिमी तट– गाजा क्षेत्र एवं संघर्षशील इलाके से सटा जलक्षेत्र खतरनाक बन चुका है, लेबनान स्थित हिज़बुल्ला और यमन के हूतियों की दखलअंदाज़ी से इसमें और वृद्धि हुई है।
इन परिस्थितियों के अंतर्गत, हज़ारों भारतीय श्रमिकों को उस इलाके में भेजना बहुत खतरनाक है क्योंकि वे भी भी हमास या हिज़बुल्ला का निशाना बन सकते हैं।

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लेखक मंत्रिमंडल सचिवालय में विशेष सचिव रहे हैं और व्यक्त विचार निजी हैं।

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