जलवायु संकट से जीवन रक्षा का अधिकार
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन एवं आजादी की सुरक्षा) के दायरे को विस्तार देते हुए स्वतंत्रता के अधिकार या जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभावों से सुरक्षा की आजादी को मान्यता दी है।
सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट हो कि आखिर ‘अधिकार’ का अर्थ क्या है। ‘अधिकार’ किसी व्यक्ति अथवा समूह द्वारा किया वह दावा है (जैसे कि महिला, एलजीबीटीक्यूआईए इत्यादि) जिसकी अहमियत इसकी कीमतों और फायदों से कहीं ऊपर होती है। उदाहरणार्थ, एक पुलिसकर्मी यह दलील नहीं दे सकता कि किसी विधवा के यहां हुई चोरी को सुलझाने में जो वक्त और पैसा लगेगा यदि वह चोरी हुए माल या धन से अधिक है तो उसकी शिकायत पर कार्रवाई करने का क्या औचित्य। दूसरा, अधिकार में सामान्यतः फर्ज भी निहित होता है– किसी व्यक्ति, संस्थान अथवा सरकार का– ताकि दावा सही लगे।
विभिन्न गैसों के वैश्विक उत्सर्जन, जिसको ग्रीन हाउस गैस भी कहा जाता है, इनकी वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। ऐसे प्रभाव का विकासशील मुल्कों के अपने उत्सर्जन से संबंध कम ही है। इनकी सरकारें अपने तौर पर वैश्विक स्तर के ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करने में कुछ अधिक नहीं कर सकतीं। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सर्वसम्मति की जरूरत है, इस दिशा में अपेक्षित चाल 1992 से ही धीमी है, जब संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) नामक प्रस्ताव अपनाया गया था।
यूएनएफसीसीसी मानता है कि जलवायु परिवर्तन के कारकों को थामने, उत्सर्जन घटाने और प्रभावों को कम करने में विकसित मुल्कों के पास अधिक क्षमता है, इसे ‘सामान्य किंतु अंतर लाने वाली जिम्मेवारी’ नामक सिद्धांत के तौर पर जाना जाता है। पेरिस संधि-2015 के ध्येयों पर अमल फिलहाल शोचनीय रूप से बहुत कम है, जिसके अंतर्गत वैश्विक औसत तापमान में बढ़ोतरी स्वीकार्य सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर बनाए रखना है। लेकिन यह न होने पर, वास्तविक धरातल पर इसके प्रभाव स्वरूप मौसम में तीव्र बदलाव बढ़ते जा रहे हैं।
इन परिस्थितियों में, क्योंकि पर्यावरणीय बदलाव भारत पर भी प्रभाव पड़ रहे हैं और अधिकांशतः इसके पीछे जिम्मेवार विकसित देशों के कारनामे हैं, क्या एक आम नागरिक इस जलवायु परिवर्तन से आजादी का हक पाने का दावा कर सकता है? तर्क के आधार कर कहें तो समस्या का मुख्य जिम्मेवार विकसित देशों का समूह है।
अब तक, अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण परिवर्तन संधियां विकासशील राष्ट्रों को सुधारक उपाय अपनाने के हेतु बहुत कम धन उपलब्ध करवा पाई हैं। इसलिए, तो क्या सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अर्थ है कि लागत चाहे कितनी भी हो, भारतीय सरकार को पर्यावरण में सुधार के उपाय करने ही होंगे?
इस अधिकार की अन्य अवधारणा है स्वतंत्रता का अधिकार बनाम भलाई का अधिकार। जीवन का अधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी इत्यादि स्वतंत्रता के अधिकार में आते हैं। शिक्षा का अधिकार, जलवायु परिवर्तन से निजात के अधिकार सहित साफ-सुथरा पर्यावरण पाने के हक को भलाई अधिकारों में गिना जाता है। स्वतंत्रता अधिकार में केवल जरूरत है अन्य कोई इनका उल्लंघन न करने पाए जबकि भलाई अधिकार वह हैं जिसकी प्राप्ति करने में तदनुरूप कर्तव्यों पर उद्देश्यपूर्ण कार्रवाई की जरूरत होती है। स्वतंत्रता अधिकारों को लागू करने में अधिकांशतः बहुत ज्यादा कीमत नहीं लगती। लेकिन, कल्याण अधिकारों को मूर्त रूप देने में सामान्यतः बहुत बड़े स्तर पर संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है। किंतु जब संसाधन पहले से कम पड़ते हों, जैसा कि विकासशील मुल्कों में होता है, तब चुनाव करते वक्त विभिन्न अन्य कल्याण अधिकारों को तरजीह देनी पड़ती है।
अनेक अध्ययन दर्शाते हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कम करने में बहुत ज्यादा धन की जरूरत पड़ती है। विकसित देशों की ओर से विशाल मात्रा में अंतर्राष्ट्रीय मदद राशि की अनुपस्थिति के मायने हैं कि भारत सरकार को अपने संसाधन जुटाकर इस समस्या का हल निकालना पड़ेगा। अगर सरकार को अन्य विभिन्न कल्याण अधिकार भी सुनिश्चित करने हैं तो सीमित संसाधनों के चलते प्रत्येक मामले में प्राप्ति आंशिक ही होगी। लगातार बदलते अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण परिवर्तन नियमों के तहत पर्यावरण अधिकार की संपूर्ण प्राप्ति को जरूरत है विकसित देशों से नवीन एवं अतिरिक्त संसाधन विकासशील मुल्कों को दिए जाने की। लेकिन इस किस्म के संसाधन मिलने की संभावना बहुत क्षीण है।
वर्ष 2005 में केंद्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त धन से पर्यावरण संबंधित प्रभावों पर एक अध्ययन हुआ था। इसके उद्देश्यों में योजनाएं एवं निवारण कार्यक्रम का सुझाव देने के अलावा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बनी स्थिति में राहत उपाय (सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण, वानिकी, चक्रवात शरणस्थली) की शिनाख्त करना और उन पर होने वाले खर्च का अनुमान देना था। इसके निष्कर्ष चौंकाने वाले थे, भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.8 प्रतिशत इस किस्म के कार्यक्रमों के ऊपर खर्च हुआ था, यह व्यय भारत के रक्षा बजट जितना था। हो सकता है बाद में यह मात्रा और बढ़ गई हो।
अतएव, क्या जलवायु परिवर्तन से आजादी के अधिकार को मान्यता देने की व्यावहारिकता में काफी उलझने हैं? साफ तौर पर, बाहरी स्रोतों का प्रभाव, यदि कोई है, तो वह बहुत कम होगा। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का जोखिम कम करने में होने वाले खर्च के एेतिहासिक स्तर के मद्देनज़र लगता नहीं कि जलवायु परिवर्तन अधिकार को मूर्त रूप देने के लिए सकल घरेलू उत्पाद के अंश में बढ़ोतरी करने की गुंजाइश है।
तथापि, जैसा कि देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि हो रही है, समस्त संसाधनों का स्तर भी बढ़ेगा। साथ ही, नागरिकों की आय बढ़ने पर, वे जलवायु प्रभाव के परिणामों से बचने को निजी तौर पर अधिक खर्च कर पाएंगे, मसलन, सुरक्षित आवास, स्वास्थ्य देखभाल पर अधिक खर्च, जल-संचयन और अतिशयी आपदाओं के संदर्भ में बीमा करवाना इत्यादि। कुल मिलाकर, जैसे-जैसे देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि होगी वैसे-वैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से नागरिकों का जोखिम कम होता जाएगा। इस असर से मुक्ति पाने में विकास एक चाबी है। कदाचित सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का मुख्य आशय जलवायु संबंधी जोखिमों से बचाव करने पर खर्च में कटौती की भावी संभावना को खत्म करना है।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उस याचिका के संदर्भ में आया है जिसमें राजस्थान और गुजरात में संकटग्रस्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (तिलोर) पक्षी के अभयारण्य स्थल से होकर गुजरने वाली अक्षय ऊर्जा की बिजली तारों को जमीन के नीचे डालने का फैसला देने के खिलाफ अपील लगाई गई थी। ऊंचे खम्भों के माध्यम से लगी बिजली आपूर्ति तारों से टकरा कर बड़ी संख्या में पक्षी मारे जाते हैं। बिजली कंपनियों की दलील है कि इसमें बहुत खर्च आएगा और अक्षय ऊर्जा की दरें प्रतिस्पर्धात्मक नहीं रहेंगी।
साफ है, जलवायु सततता का अधिकार और ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन घटाने में भारत की अंतर्राष्ट्रीय जिम्मेवारी का निर्वहन इस मामले में परस्पर विरोधाभासी है। इस अक्षय ऊर्जा की परियोजना की क्षति से भारत को पेरिस जलवायु संधि में किए वादे को निभाना और मुश्किल हो जाएगा। और यदि इस योजना को जारी रखें तो संकटग्रस्त पक्षी की प्रजाति को बचाना कठिन हो जाएगा। अदालत का सुझाव है कि इन दोनों चिंताओं का व्यावहारिक हल निकालने के लिए विशेषज्ञ अध्ययन करवाया जाए। यदि रास्ता निकलता है तो बहुत बढ़िया वर्ना शायद नीति अनुसंधान संस्थान इस मुश्किल दुविधा का हल निकालने में मददगार हो पाए।
लेखक ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान में विशेषज्ञ हैं।