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आलोचना का अधिकार

07:44 AM Mar 11, 2024 IST
आलोचना का अधिकार
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अक्सर सुनने में आता है कि विचारों की अभिव्यक्ति को लेकर पुलिस का रवैया आक्रामक होता है और वह अनावश्यक धाराओं में व्यक्ति को गिरफ्तार व प्रताड़ित करने में जल्दबाजी दिखाती है। ऐसे ही एक प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रत्येक नागरिक को राज्य के किसी फैसले पर आलोचना करने का आधिकार है। दरअसल, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की निंदा करने वाली एक टिप्पणी पर एक प्रोफेसर के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करते हुए शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी की। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र पुलिस ने ‘पांच अगस्त को ब्लैक डे जम्मू और कश्मीर’ और ‘14 अगस्त पर पाकिस्तान को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं’ जैसे व्हाट्सएप संदेश पोस्ट करने के लिये प्रोफेसर जावेद अहमद पर आईपीसी की धारा 153-ए के तहत मामला दर्ज किया था। दरअसल, यह मामला धर्म, जाति आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने पर दर्ज किया जाता है। इसी वजह से बॉम्बे हाईकोर्ट के एक आदेश को रद्द करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि राज्य के कार्यों की हर आलोचना या विरोध को धारा 153-ए के तहत अपराध माना जाता है तो यह संविधान प्रदत्त अनिवार्य हक के विरुद्ध, लोकतंत्र की आत्मा के हनन जैसा होगा। इस मामले पर चर्चा करते हुए शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि वैध तरीके से असहमति का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए के तहत गारंटीशुदा अधिकार है।
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल दिसंबर में अनुच्छेद 370 को केंद्र सरकार द्वारा निरस्त करने के वर्ष 2019 के फैसले को बरकरार रखा था। इसके बावजूद केंद्र सरकार के फैसले को लेकर अस्वीकृति की आवाजें अभी कम नहीं हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में पिछले दिनों प्रधानमंत्री की जम्मू-कश्मीर यात्रा के दौरान भी विपक्षी नेताओं की ऐसी प्रतिक्रिया देखी गई। लेकिन प्रोफेसर के मामले में पुलिस की विवादास्पद भूमिका को न्यायिक और सार्वजनिक जांच के दायरे में ला दिया है। दरअसल, देखा जाता है कि ऐसे मामलों में पुलिस आनन-फानन में असहमति जताने वाले को पकड़ने के लिये मामले को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर देती है। यही वजह है कि अदालत को कहना पड़ा कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा तथा इस आजादी को लेकर उचित संयम की सीमा के बारे में हमारे पुलिस तंत्र को जागरूक व शिक्षित करने की जरूरत है। निश्चित रूप से देश के नीति-नियंताओं को शीर्ष अदालत के सुझाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। वहीं देश के पुलिसकर्मियों को संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। निस्संदेह, सामान्य मामलों के आधार पर मुकदमें दर्ज करना पुलिस के निरंकुश व्यवहार को ही दर्शाता है। जो निश्चित रूप से एक अलोकतांत्रिक कदम कहा जाएगा। विश्वास किया जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में अब पुलिस द्वारा सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर व्यक्ति विशेष को असामाजिक व राष्ट्रविरोधी करार देने से रोका जाएगा। निस्संदेह,हिंसा व घृणा को बढ़ावा न देने वाली टिप्पणियों पर दंडात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए।

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