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आलोचना का हक

06:10 AM Oct 08, 2024 IST

सही मायनों में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर सत्ताधीशों को आईना ही दिखाया है कि सरकार की रीति-नीतियों व निर्णयों की आलोचना करना पत्रकारों का अधिकार है। निस्संदेह, सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी उन पत्रकारों के लिये राहतकारी है जो राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों के खिलाफ मुखर होने पर दमन का शिकार बने। कई राज्यों में उनकी गिरफ्तारी भी हुई, मारपीट हुई और गंभीर धाराओं में गिरफ्तारी दिखायी गई। कई पत्रकारों के संदिग्ध परिस्थितियों का शिकार बनने की खबरें भी यदा-कदा आती रहती हैं। निश्चय ही उन निर्भीक पत्रकारों के लिये सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी सुकून देने वाली है, जो राजनीतिक दुराग्रह का शिकार बने हैं। ये आने वाला वक्त बताएगा कि कोर्ट की टिप्पणी के आलोक में सरकारें अपनी रीति-नीतियों में कितना बदलाव करती हैं। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार के विरुद्ध दर्ज मुकदमे की सुनवाई के दौरान की। शीर्ष अदालत ने इस तरह उन सत्ताधीशों को आईना ही दिखाया जो आलोचना बर्दाश्त न करके मीडियाकर्मियों के खिलाफ आक्रामक हो जाते हैं। देश में आजादी के बाद भी बड़े राजनेता मीडिया द्वारा किसी नीति या फैसले के खिलाफ की गई आलोचना को सहजता से लेते थे। बाकायदा संसद में विपक्षी सांसद अखबार की प्रतियां लहराकर खुली बहस की मांग किया करते थे। यही वजह है कि हालिया टिप्पणी के दौरान शीर्ष अदालत ने अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े संविधान के अनुच्छेद की याद दिलायी। इस तरह कोर्ट ने बेबाकी से सत्ता की निरंकुशता के खिलाफ मुखर रहे पत्रकारों को संबल ही प्रदान किया है। यह विडंबना है कि कई राज्यों में सत्ताधीशों ने तल्ख आलोचना, कार्टून बनाने तथा सोशल मीडिया पर की गई आलोचना को लेकर दुराग्रह दिखाया। इसमें मुकदमे दर्ज करने , गिरफ्तारी और जेल के सीखचों के पीछे डालने के मामले भी सामने आए। राजनेताओं में अब आलोचना के प्रति वह सहिष्णुता नजर नहीं आती, जो समृद्ध लोकतांत्रिक परंपराओं की अपरिहार्य शर्त है।
हाल के वर्षों में देखा गया है कि राजनेता किसी आलोचनात्मक टिप्पणी के बाद आक्रामक मुद्रा में आ जाते हैं। यहां तक कि कुछ पत्रकारों पर उन धाराओं में मुकदमे दर्ज किये जाते हैं, जो कि राष्ट्र विरोधी तत्वों के खिलाफ दर्ज होते हैं। हद तो तब हो जाती है जब मुकदमें गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम के तहत भी दर्ज होते हैं। ऐसे मामलों में पत्रकारों की जमानत कराना भी टेढ़ी खीर बन जाती है। निश्चित तौर पर ऐसे कदम दुराग्रह से प्रेरित होकर ही उठाये जाते हैं। विगत के वर्षों में शीर्ष अदालत व्यापक संदर्भों में कह चुकी है कि सरकार की आलोचना करने को राष्ट्रद्रोह की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इसके बावजूद निरंकुश सत्ताधीश अपनी हरकतों से बाज नहीं आते। यह प्रवृत्ति सदियों से चली आ रही है कि जो कुछ सरकारें जनता से छिपाना चाहती हैं, उसे उजागर करने वालों को अपना दुश्मन मान लेती हैं। फिर साम-दाम-दंड-भेद से उस आवाज को खामोश करने में लग जाती हैं। धीरे-धीरे सरकारें आलोचनाओं के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने लगीं। दरअसल, सत्ताधीशों को ढोल की पोल खुलने का भय सताता रहता है। दुनिया के सभ्य समाजों व जागरूक लोकतंत्रों में आलोचना को स्वीकार करने की समृद्द परंपराएं विद्यमान हैं। इसी से किसी देश की स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं, सामाजिक विकास और उन्नति का मूल्यांकन किया जाता है। यह अच्छा है कि अदालतें समय-समय पर अभिव्यक्ति की आजादी को संबल प्रदान करती हैं। विडंबना है कि आजादी के सात दशक बाद भी हम देश में आम जनमानस को इतना जागरूक नहीं कर पाये कि वे अपने निष्पक्ष सूचना पाने के अधिकार के प्रति जागरूक हो सकें। यही वजह है कि सच्चाई से पर्दा उठाने की कोशिश में वह निर्भीक पत्रकार के बचाव में खड़े नजर नहीं आते। वे ध्यान नहीं रखते कि उनके हित से जुड़ा कुछ सच सत्ताधीश छुपाना चाहते हैं। राजनेता सत्ता की सुविधा के लिये मनमाफिक प्रचार तो करना चाहते हैं,लेकिन सच को सात पर्दों में रखना चाहते हैं। निस्संदेह, सजग, सतर्क और निर्भीक पत्रकार एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाकर सत्ताधीशों को राह ही दिखाता है।

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