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किसान की ससम्मान सुनवाई करने का सही अवसर

08:53 AM Feb 19, 2024 IST
किसान की ससम्मान सुनवाई करने का सही अवसर
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राजेश रामचंद्रन
इन दिनों किन्नुओं की बहार है और घर-द्वार पर यह 50 रुपये प्रति किलोग्राम बिक रहा है। वे पाठक, जो उपभोक्ता हैं, उनको इसमें कुछ असामान्य नहीं लगेगा। लेकिन इस बार की इसकी फसल की कहानी जद्दोजहद और आंसुओं से भीगी है। अबोहर मंडी में, जो शायद विश्वभर में किन्नू के लिए सबसे बड़ी व्यापार मंडी है, बागवान के किन्नू का भाव 3-10 रुपये प्रति किलोग्राम लग रहा है। जिस फल का दाम किसान को महज 3 रुपये प्रति किलो मिल रहा है वही चंडीगढ़ में उपभोक्ता रेहड़ी वाले से 50 रुपये में खरीद रहा है। यदि इस विद्रूपता भरी स्थिति से तीव्र आंदोलन पैदा न होगा तो फिर किससे होगा? और आज पंजाब-हरियाणा सीमा पर जो हो रहा है, वह यही है।
ऐसा क्यों? फाज़िल्का जिले की अबोहर तहसील के पट्टी सादिक गांव के गुरप्रीत सिंह इस बुनियादी सवाल का जवाब पाना चाहते हैं। केंद्रीय सरकार ने उनके सफल फसल-विविधीकरण प्रयासों के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया है। मुखर और प्रगतिशील किसान का गुरप्रीत से बेहतर अन्य उदाहरण नहीं हो सकता। उन्होंने शिक्षा में विशेषज्ञता के साथ स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री कर रखी है फिर भी खेती को बतौर पूर्णकालिक व्यवसाय चुना। सामान्य गेहूंं-चावल के फसल चक्र से हटकर गुरप्रीत ने विविधीकरण के लिए किन्नू को चुना और 27 एकड़ पुश्तैनी जमीन के 20 एकड़ रकबे में किन्नू के बाग लगाए। लेकिन आज वे पूरी तरह मायूस हैं।
ले-देकर उनके किन्नू का मंडी में भाव 10.30 रुपये प्रति किलो लगा, जो खुदरा उपभोक्ता द्वारा चुकाए जाने वाले मूल्य का महज पांचवां हिस्सा बनता है। गुरप्रीत का दावा है कि पंजाब एग्रो नामक खरीद कंपनी, जो नवम्बर-दिसम्बर में बाजार में उतरी थी, उसने उन्हें नज़रअंदाज़ करते हुए राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों से किन्नू की 12.60 रुपये प्रति किलो के भाव से खरीद की है। हालांकि उनके इस दावे का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन यह तथ्य है कि इस साल फसल बढ़िया हुई है और जिन खरीददारों ने पिछले साल 27 रुपये प्रति किलो के दाम लगाकर किसानों को किन्नू उगाने के लिए प्रोत्साहित किया था, वे अचानक गायब हो गए। शायद पड़ोसी मुल्क द्वारा आयात शुल्क में बढ़ोतरी के कारण। लेकिन ये कारण उस किसान के लिए सुनने में बहाने मात्र हैं, जो बम्पर फसल देने की गलती करके, उलटा घाटे में डूबा।
यह तथ्य है कि आपूर्ति शृंखला के आरंभिक बिंदु पर जिस उत्पाद को 3 रुपये प्रति किलो के भाव से खरीदा जा रहा है, वह 300 किमी की दूरी पर खुदरा उपभोक्ता छोर पर 50 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। पंजाब-हरियाणा सीमा पर जो किसान आज आंदोलनरत हैं वे भारतीय कृषि-उत्पाद बाजार में व्याप्त इस मूल विद्रूपता को ठीक करवाने के वास्ते हैं। शहरी लोग, जो पंजाब के किसानों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनन गारंटी बनाने वाली मांग के प्रति निष्ठुर हैं और प्रदर्शनकारियों पर ड्रोन द्वारा आंसू गैस के गोले छोड़ने को सही ठहरा रहे हैं, वे किंचित ठिठककर विचार करें और सोचें कि क्या उन्हें अपने किसी उत्पाद को लागत से कम मूल्य पर बेचना गवारा होगा? तब उन्हें कैसा महसूस होगा जब पाएंगे कि उनका उत्पाद, पड़ोस के जिलों में, खरीद मूल्य से 5 से 18 गुणा महंगा - वह भी बिना कोई मूल्य-संवर्धन क्रिया से गुजरे - बिक रहा हो।
गुरप्रीत सिंह, एक प्रगतिशील किसान, जिसे अपनी जमीन, मिट्टी, भूजल स्तर की परवाह है और वह जिसे धान लगाने की एवज में पानी की भारी हानि को लेकर चिंता है, उसके पास एक सरल हल है – विपणन और अनुसंधान एवं विकास द्वारा मूल्य संवर्धन। कृषि वैज्ञानिक डॉ़ एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न देकर सम्मानित किया जाना ऐसे वक्त में हुआ है जब गुरप्रीत को उनके ही दिए भाव-समीकरण के मुताबिक इस साल फसल पर कोई लाभ नहीं मिला। लेकिन गुरप्रीत की विपणन को लेकर चिंताओं के संदर्भ में भारत के उनसे भी बड़े रत्न यानि वर्गीज़ कुरियन के बारे में बात करना प्रासंगिक होगा।
उन्होंने सुनिश्चित किया कि जो कुछ किसान बेचे उसे एक संगठन खरीदे, जो मुनाफा बनाए और इस लाभ का हिस्सा किसान को बेहतर खरीद प्रदान कर, उससे साझा करे। कृषि उत्पाद विपणन का अमूल से बेहतर कोई अन्य उदाहरण है? जिस प्रकार का लाभांश अमूल का उत्पादक-शेयरधारकों को मिलता है, वैसा पाने का हकदार भारत का प्रत्येक किसान है। जब तक किसान को उसके द्वार पर उत्पाद का मूल्य- लाभ सहित- न मिल पाएगा तब तक भारतीय कृषक सरकार के समक्ष दखल देने और कानूनन गारंटी देने की मांग करने को मजबूर रहेगा।
खाद्य तेल का भारत सबसे बड़ा खरीदार है और इसके लिए 20 बिलियन डॉलर मूल्य का आयात सालाना करना पड़ता है, तथापि, सूरजमुखी बीज के उत्पादक किसानों को पिछली फसल में यथेष्ट भाव पाने के लिए हरियाणा के कुरुक्षेत्र के पास शाहबाद में नेशनल हाइवे को जाम करके प्रदर्शन करना पड़ा – जिस न्यूनतम सरकारी समर्थन मूल्य 6400 रुपये प्रति क्विंटल पर इसकी कथित खरीद की गई, यह महत्वपूर्ण उत्पाद सरकार द्वारा खरीदना अपेक्षित है जो उपभोक्ता की जेब पर असर डालता है। लेकिन पिछले साल किसान को अपनी सरसों की फसल भी आढ़ती को 4,440 रुपये प्रति क्विंटल बेचनी पड़ी. जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,450 रुपये प्रति क्विंटल तय हुआ था।
हर साल, ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जब कुछ किसान सड़कों पर सब्जियां या फल फेंक देते हैं या फिर खेतों में ट्रैक्टर से कुचलना पड़ता है, इससे सरकार की आंख खुल जानी चाहिए थी। जाहिर है, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बाध्यता बनवाकर खरीद करवाने के सिवा कोई अन्य राह नहीं सूझेगी। सरकार परस्त अर्थशास्त्री और टिप्पणीकार, जो ऐसा करने पर वित्तीय आपदा टूट पड़ने का हौवा खड़ा करते हैं और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए कई लाखों करोड़ रुपये की आंकड़ेबाज़ी का सहारा लेते हैं, उन्हें इतनी भी समझ नहीं है कि उपभोक्ता तो पहले से ही उत्पाद के लाखों करोड़ रुपये भर रहा है, और मुनाफे में किसान के पल्ले कुछ नहीं पड़ता है। यदि बाजार-मंडी के बिचौलिए गलत खेल चलाए हुए हैं तो उन्हें अनुशासित रखने की जिम्मेवारी सरकार की है ताकि उत्पादक को गुजारे लायक मुनाफा मिलता रहे।
और यदि उसे यह नहीं मिलेगा तो वह सड़कों पर आकर जाम लगाएगा, वह भी ऐसे वक्त जब समय सरकार के लिए सबसे नाज़ुक हो। यह भी जाहिर है कि पंजाब का बनिस्बत समर्थ किसान देशभर के हमबिरादर कृषकों की ओर से समस्याएं उठाते हुए सरकार को घेरने का प्रयास कर रहा है और सरकार ने ड्रोन के उपयोग से उनपर आंसू गैस के गोले बरसाकर एक भयंकर भूल की है और जनता के बीच अपनी छवि को ग्रहण लगवा बैठी है। उनके विरोध का यह ढंग वैध प्रतिरोधात्मक रणनीति है। अफसोस कि शुक्रवार को शम्भू सीमा नाके पर एक किसान की हृदयाघात से मृत्यु हुई, इससे चुनाव पूर्व बेला में सरकार के लिए स्थितियां असहज बनने में इजाफा होगा।
किंतु, ठीक इसी वक्त यह विरोध प्रदर्शन प्रधानमंत्री के लिए सुनहरा मौका हो सकता है, यदि वे स्थिति को उलटना तय कर लें - किसानों को भी ‘मोदी की गारंटी’ का भरोसा देकर। उनकी मांगें मानें, उन्हें विजेता महसूस करवाएं। भारतीय किसान को जब लगे कि उसकी सुनवाई हुई है, ससम्मान, तो ऐसा कुछ नहीं जो वह देने को राजी न हो। प्रदर्शन को ऐसे घाव में तब्दील न होने दिया जाए कि वह गैंग्रीन बन जाए।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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