दुर्गा पूजा की परंपरा में सम्मान और श्रद्धा
धीरज बसाक
कोलकाता में दुर्गा पूजा का पर्व, जो पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है, अपनी भव्यता और दिव्यता में अद्वितीय है। इस दौरान यह शहर मां दुर्गा के पंडालों से सज जाता है, जहां हर गली और मोहल्ले में पंडालों की भरमार होती है। दस दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में न केवल देश, बल्कि दुनिया भर से हजारों श्रद्धालु कोलकाता आते हैं। पिछले वर्ष, यहां 4000 से अधिक पंडाल स्थापित किए गए थे, जो इस पर्व की अनोखी रंगत को दर्शाते हैं।
महालया : पर्व की शुरुआत
मानसून के जाते ही दुर्गा पूजा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं, भले इस महापूजा की अनुष्ठानिक शुरुआत महालया यानी जिस दिन पितरों को विदा किया जाता है, अर्थात् पितृ विसर्जनी अमावस्या के दिन से होती हो। महालया का मतलब होता है महान निवास; एक तरह से पितरों को विदा करके इसी दिन से मां दुर्गा के महान निवास की तैयारी शुरू की जाती है। सुबह पृथ्वीलोक से पितरों को विदाई दी जाती है और शाम के समय मां दुर्गा का धरती पर आगमन के लिए आह्वान किया जाता है। इसके लिए इस दिन पूरे पश्चिम बंगाल में मां दुर्गा को धरती पर बुलाने के लिए उनका तरह-तरह से स्वागत किया जाता है, अनेक प्रकार की प्रार्थनाएं गाई जाती हैं। शाम होते ही घरों में, मंदिरों में लोग समूहों में एकत्र होकर मां महिषासुरमर्दिनी का भजन पाठ करते हैं। इसी दिन दुर्गा मां के आगमन से पहले उनकी मूर्ति को अंतिम रूप दिया जाता है।
मूर्तियों का निर्माण और महत्व
महालया के एक सप्ताह बाद से दुर्गा पूजा की शुरुआत होती है, लेकिन यह दिन समूची पूजा में इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसी दिन मां दुर्गा की मिट्टी की मूर्ति में आंखें खींची जाती हैं या कहें कि उन्हें जीवंत किया जाता है। इसके पहले मां दुर्गा की पूरी मूर्ति बनाकर उसे कपड़े से ढका रखा जाता है। लोगों को उन्हें देखने नहीं दिया जाता। जो कारीगर सड़क किनारे मां दुर्गा की मूर्ति बनाते हैं, वे महालया से पहले लोगों से छिपाकर रखते हैं। महालया के दिन मां दुर्गा की मूर्तियों में आंखें खींची जाती हैं और उन्हें अंतिम टच देकर पंडालों में स्थापित किया जाना शुरू होता है। इसका मतलब यह है कि महालया के पहले तक मां दुर्गा की सभी मूर्तियां बना ली जाती हैं, उनमें सिर्फ आंख खींचना भर बाकी रहता है।
समर्पित महिलाओं का योगदान
मां दुर्गा की मूर्तियों का बनाने का सिलसिला मानसून खत्म होते ही शुरू हो जाता है। बारिश के खत्म होते ही मूर्तिकारी हुगली अर्थात् गंगा नदी से मिट्टी खींचकर लाते हैं, लेकिन तुरंत इस मिट्टी से मूर्तियां बनाना नहीं शुरू कर देते। इस मिट्टी में गोमूत्र, गोबर, थोड़ा घी, थोड़ा शहद, सुगंधित सामग्री और सबसे प्रमुख वेश्यालय की आंगन से लाई गई मिट्टी भी मिलाते हैं। इस मिट्टी से मां दुर्गा की मूर्तियां बनती हैं। लेकिन मूर्ति बनाने वाले कारीगर मिट्टी में बाकी चीजें तो आसानी से मिला लेते हैं, बस वेश्याओं के आंगन की मिट्टी के लिए रिवाज के तौर पर कारीगर वेश्याओं के घर जाकर उनसे भीख में उनके आंगन की मिट्टी चाहते हैं। वेश्याएं बेहद संवेदनशील तरीके से इस रिवाज को मानती हैं, क्योंकि इसमें उन्हें अपने परिवार और समाज का सम्मान महसूस होता है। मूर्तिकारी छोटे-छोटे समूहों में वेश्याओं के पास जाते हैं और उनसे मां दुर्गा की मूर्तियां बनाने के लिए मिट्टी की मांग करते हैं। इसके लिए कारीगर उनकी चिरौरी विनती करते हैं, तब कहीं जाकर वे पसीजती हैं और फिर अपना नेग लेकर कारीगरों को मिट्टी देती हैं।
पर्व के दौरान जश्न
जिस दिन कारीगर वेश्याओं की बस्ती में उनके आंगन की मिट्टी मांगने आते हैं, उस दिन सुबह से ही रह-रहकर ढोल और शहनाई के स्वर सुनाई पड़ते हैं। कारीगर अपनी-अपनी मंडली बनाकर बैंडबाजों के साथ उनके घर आते हैं और उनके आंगन की पवित्र मिट्टी मांगते हैं, ताकि मां दुर्गा की मूर्तियां बनाई जा सकें। वेश्याओं के मोहल्ले में उनके आंगन की मिट्टी मांगने के लिए महीनों पहले से ही कारीगर आने लगते हैं और वेश्याएं काफी मान-मनौवल के बाद उन्हें यह मिट्टी देती हैं। इसके लिए उन्हें कारीगर नेग भी देते हैं। यह रस्म भी देखने वाली होती है। इस दिन पश्चिम बंगाल की सरकार भी वेश्याओं को नेग के तौर पर पैसे देती है। वेश्याओं से मिट्टी लाकर ही कारीगर मां दुर्गा की मूर्तियां बनाना शुरू कर देते हैं।
इ.रि.सें.