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मातृभाषा से स्वाधीनता प्राप्ति का संकल्प

07:36 AM Sep 12, 2021 IST
मातृभाषा से स्वाधीनता प्राप्ति का संकल्प
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गणेश शंकर विद्यार्थी

श्रीमन‍् स्वागताध्यक्ष महोदय, देवियो और सज्जनो,

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इस स्थान से आपको संबोधित करते हुए मैं अपनी दीनता के भार से दबा-सा जा रहा हूं। जिन साहित्य के महारथियों से इस स्थान की शोभा बढ़ चुकी है, उनका स्मरण करके, और जिस प्रकार के साहित्य-मर्मज्ञों को इस आसान पर आसीन होना चाहिए, उनकी कल्पना करके मैं प्रतिक्षण यह अनुभव करता हूं कि इतने भारी कार्य के भार को लेकर मैंने बड़ी भारी धृष्टता की है। मैं कार्य की गुरुता को पहले भी जानता था, किंतु समय और सुविधा की कमी से चिंतित गोरखपुरी मित्रों के प्रबल अनुरोध से मुझे इस बात के लिए तैयार होना पड़ा कि पूजनीय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की अनुपस्थिति में उनके एक बहुत छोटे सेवक के नाते मैं गोरखपुर सम्मेलन की साधारण कार्यवाही को भले या बुरे, जिस ढंग से बने, इसे पूरा करा दूं।

आज से उन्नीस वर्ष पहले, जबकि इस सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वंतत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग-पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मगधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहां तक पहुंच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का, बादशाह शाहजहां के समय जन्म लेने वाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था। जिस भाषा में पद्य की रचना इतने ऊंचे दर्जे तक पहुंच चुकी हो, उसके संबंध में इस बात की सफाई देनी पड़े कि उसका उस समय गद्य रूप भी था, इससे बढ़कर कोई हास्यास्पद बात नहीं हो सकती। …भाषा जातीय जीवन और उसकी संस्कृति की सर्वप्रधान रक्षिका है, वह उसके शील का दर्पण है, वह उसके विकास का वैभव है। भाषा जीती, और सब जीत लिया। फिर कुछ भी जीतने के लिए शेष नहीं रह जाता।

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भाषा-संबंधी सबसे आधुनिक लड़ाई आयरलैंड को लड़नी पड़ी थी। पराधीनता ने मौलिक भाषा का सर्वथा नाश कर दिया था। दुर्दशा यहां तक हुई कि इने-गिने मनुष्यों को छोड़कर किसी को भी गैलिक का ज्ञान न रहा था, आयरलैंड के समस्त लोग यह समझने लगे थे कि अंग्रेजी ही उनकी मातृभाषा है, और जिन्हें गैलिक आती भी थी, वे उसे बोलते लजाते थे और कभी किसी व्यक्ति के सामने उसके एक भी शब्द का उच्चारण नहीं करते थे। आत्म-विस्मृति के इस युग के पश्चात जब आयरलैंड की सोती हुई आत्मा जागी तब उसने अनुभव किया कि उसने स्वाधीनता तो खो ही दी, किंतु उससे भी अधिक बहुमूल्य वस्तु उसने अपनी भाषा भी खो दी। गैलिक भाषा के पुनरुत्थान की कथा अत्यंत चमत्कारपूर्ण और उत्साहवर्धक है। उससे अपने भाव और भाषा को बिसरा देने वाले समस्त देशों को प्रोत्साहन और आत्मोद्धार का संदेश मिलता है। इस शताब्दी के आरंभ हो जाने के बहुत पीछे, गैलिक भाषा के पुनरुद्धार का प्रयत्न आरंभ हुआ। देखते-देखते वह आयरलैंड-भर पर छा गयी। देश की उन्नति चाहने वाला प्रत्येक व्यक्ति गैलिक पढ़ना-पढ़ाना अपना कर्तव्य समझने लगा। सौ वर्ष बूढ़े एक मोची से डी-वेलरा ने युवावस्था में गैलिक पढ़ी और इसलिए पढ़ी कि उनका स्पष्ट मत था कि यदि मेरे सामने एक ओर देश की स्वाधीनता रखी जाए और दूसरी ओर मातृभाषा, और मुझसे पूछा जाये कि इन दोनों में एक कौन-सी लोगे, तो एक क्षण के विलंब के बिना मैं मातृभाषा को ले लूंगा, क्योंकि इसके बल से मैं देश की स्वाधीनता भी प्राप्त कर लूंगा।

हिंदी के अस्तित्व के लिए बहुत समय से संघर्ष है। संघर्ष उस समय था, जब गद्य रूप में हिंदी कुछ भी नहीं थी, और उस समय भी था, जबकि उस रूप में वह कुछ थी भी, और इस समय भी है, जबकि गद्य और पद्य दोनों रूपों में हिंदी के अस्तित्व से कोई मुकर नहीं सकता। इस समय भी हिंदी को पूरा खुला हुआ मार्ग नहीं मिल रहा है। अभी तक इस देश के करोड़ों बालक, जिनकी मातृभाषा हिंदी थी, कच्ची उम्र ही में साधारण-से-साधारण विषयों तक की ज्ञान-प्राप्ति के लिए विदेशी भाषा के भार से दाब दिये जाते थे। अब भी उच्च शिक्षा के लिए बालक ही क्या, बालिकाएं तक उसी भार के नीचे दबती हैं। उनकी मौलिक बुद्धि व्यर्थ के भार के नीचे दबकर हतप्रभ हो जाती है और देश और जाति उसके लाभ से सदा के लिए वंचित हो जाते हैं। बाल्यकाल से अंग्रेजों की छाया में पढ़ने के लिए विवश होने के कारण हमारे अधिकांश सुशिक्षित जन अपनी संस्कृति, अपनी भूतकालिक महत्ता, अपने पूर्वजों की कृतियों से दूर तो पड़ ही जाते हैं, वे अपने और अपनों के भी पराये हो जाते हैं।

नागरी लिपि पर जो आक्रमण हो रहे हैं, उनसे भी इसकी रक्षा के लिए यत्न होना चाहिए। पहले तो हिंदी का राष्ट्रभाषा माना जाना ही कठिन था, किंतु अब जब यह कठिनाई नहीं रही, तब रोमन अक्षरों की श्रेष्ठता और सुविधा प्रकट करके देश के काम में उनके व्यवहृत किए जाने की बात उठायी जा रही है। अभी हाल ही में पंजाब के कमिश्नर मि. लतीफी ने रोमन लिपि में भारतवर्ष की राष्ट्रलिपि के बना दिए जाने के लिए समाचारपत्रों में लेख लिखे, और कुछ समय पहले, सर्वदल सम्मेलन की लखनऊ की एक बैठक में, जब देश की लिपि पर विचार हुआ, तब देश में कुछ मुख्य कार्यकर्ता बड़े आग्रह के साथ इस बात के लिए तैयार थे कि रोमन लिपि राष्ट्रलिपि मान ली जाये। नागरी लिपि सर्वथा दोषशून्य नहीं है, और हिंदी के टाइप में तो सुविधा और शुद्धता की दृष्टि से बहुत-से सुधार वांछनीय हैं, किंतु केवल इन त्रुटियों के कारण देश और राष्ट्र पर गौरव करने वाले किसी व्यक्ति को मन में रोमन लिपि का सबसे बड़ा आकर्षण यह कहा जाता है कि उसके द्वारा हम इस संसार के और भी निकट हो जायेंगे और उसकी बहुत-सी समान सुविधाओं से लाभ उठाने वाले बन जायेंगे। किंतु स्वतंत्र अस्तित्व को मिटा देने वाले इस मोह के कारण हम अपनी इस आशा और विश्वास को क्यों छोड़ दें कि तीस करोड़ आदमियों की लिपि से संसार एक दिन परिचय प्राप्त करने और उसे विशेष स्थान देने के लिए लालायित होगा।

जितनी द्रुत गति के साथ हम अपनी भाषा की त्रुटियों को पूरा करेंगे और उसे 32 करोड़ व्यक्तियों की राष्ट्रभाषा के समान बलशाली और गौरवयुक्त बनाएंगे, उतना ही शीघ्र हमारे साहित्य-सूर्य की रश्मियां दूर-दूर तक समस्त देशों में पकड़कर भारतीय संस्कृति, ज्ञान और कला का संदेश पहुंचावेंगी, उतने ही शीघ्र हमारी भाषा में दिए गए भाषण संसार की विविध रंगस्थलियों में गुंजरित होने लगेंगे और उनसे मनुष्य-जाति मात्र की गति-मति पर प्रभाव पड़ता हुआ दिखायी देगा, और शीघ्र एक दिन और उदय होगा और वह होगा तब, जब इस देश के प्रतिनिधि उसी प्रकार, जिस प्रकार आयरलैंड के प्रतिनिधियों ने इंग्लैंड से अंतिम संधि करते और स्वाधीनता प्राप्त करते समय अपनी विस्मृत भाषा गैलिक में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, भारतीय स्वाधीनता के किसी स्वाधीनता पत्र पर हिंदी भाषा में और नागरी अक्षरों में अपने हस्ताक्षर करते हुए दिखायी देंगे।

(गोरखपुर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में 2 मार्च 1930 को विद्यार्थी जी द्वारा दिया गया अध्यक्षीय अभिभाषण)

हिंदी आज जो राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में प्रतिष्ठा हासिल कर रही है, उसके मूल में हिंदी के विद्वानों, संपादकों और भाषा के उन्नायकों की साधना रही है, जिन्होंने देवनागरी को पांडित्यपूर्ण आडंबरों से मुक्त करके भारतीय भाषाओं के शब्दों के साथ समावेशी बनाने का प्रयास किया। आजादी से पहले और बाद में हिंदी के प्रसार के लिये जो प्रयास हुए, उनकी बानगी इन नामचीन रचनाकारों के उद‍्बोधन में मिलती है।

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