शतायु जिंदगी के संकल्प
जब देश में हर अट्ठारह नवंबर को राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा दिवस मनाने का संकल्प लिया गया तो इसका मकसद दवा रहित प्रणाली के माध्यम से सकारात्मक मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देना था। जो प्राकृतिक चिकित्सा का उद्देश्य भी है। वर्ष 2018 में इस दिन की घोषणा करके आयुष मंत्रालय ने इस विश्व प्रसिद्ध वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक संसाधनों और गतिविधियों के जरिये प्राकृतिक स्वास्थ्य को ठीक करने का राष्ट्रव्यापी संकल्प लिया। जिसका मकसद प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में ज्ञान व जागरूकता का प्रसार करना था। भारतीय संस्कृति सदियों से प्रकृति की उपासक रही है। हमारे तमाम पर्व, त्योहार, पूजा पद्धति और जीवन शैली प्रकृति के अनुरूप ही रही है। दरअसल, कुदरत के विरुद्ध दिनचर्या और खानपान ही हमारी व्याधियों के मूल में होता है। जितना हम प्रकृति के विपरीत आचरण करते हैं उतना ही मनोकायिक रोगों की चपेट में आते जाते हैं। कुदरत ने भोजन, फलों और मसालों के रूप में तमाम ऐसी चीजें दी हैं जो हमें स्वस्थ रख सकती हैं। धरती में प्रकृति हर पल बदलाव की प्रक्रिया में सक्रिय रहती है। दरअसल, मौसम व प्रकृति के अवयवों में ये बदलाव इतने सूक्ष्म और निरंतर होते हैं कि हम परिवर्तन को महसूस ही नहीं करते कि कब पत्ते बने, कोंपलें फूटी, फूल से फल बने। इसी तरह हमारे शरीर में भी सतत् और सूक्ष्म परिवर्तन निरंतर चलता रहता है जिसे हम दुनियावी फेर में पड़कर महसूस नहीं करते। शरीर की कोशिकाएं हर क्षण बदलती रहती हैं। शरीर बदलते मौसम के अनुरूप खुद को ढालता चलता है। इसी तरह प्राकृतिक चिकित्सा भी कायाकल्प की प्रक्रिया को धीरे-धीरे अंजाम देती है। आमतौर पर माना जाता है कि प्राकृतिक दिनचर्या के दौरान उपचार में 45 दिन का समय लगता है। लेकिन अब भागमभाग की जिंदगी में इसे एक सप्ताह तक सीमित कर दिया जाता है। निस्संदेह प्राकृतिक चिकित्सा की प्रक्रिया में समय लगता है, जिसके लिये रोगी को धैर्य की जरूरत होती है।
हमारे पौराणिक ग्रंथों व महापुरुषों की वाणी में प्रकृति के महत्व को देखा जा सकता है। गुरु नानकदेव जी की वाणी का प्राकृतिक जीवन के बारे में गुरबाणी में उल्लेख है- ‘पवण गुरु पाणी माता धरति महतु।’ यानी पवन हमारे गुरु हैं। यदि हवा प्रदूषित हो जाए तो जीवन पर संकट पैदा हो जाएगा। शुद्ध वायु में ही जीवन है। यदि हम प्राकृतिक संसाधनों को प्रदूषित करते हैं तो आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से खिलवाड़ करते हैं। दरअसल, प्राकृतिक चिकित्सा हमारी अराजक जीवन शैली को संयमित कर सकती है। कुछ ऐसे रोग जो उपचार योग्य नहीं माने जाते, उन पर अंकुश लगा सकती है। प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र से निकलने के बाद व्यक्ति अपने घर में आहार-विहार को संतुलित करने का प्रयास कर सकता है। हम सूरज के उगने से पहले उठें। धूप में न बैठने से हम विटामिन डी की समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं, जिससे शरीर में कई रोग पैदा हो जाते हैं। आमतौर पर विदेशों में लोग नवंबर से जनवरी तक सूर्य स्नान लेते हैं जिससे लोगों को विटामिन-डी मिल जाता है। खतरा तो आर.ओ. का पानी भी है, जो हमारी बोन डेंसिटी कम करता है। दरअसल, आज आम लोग शारीरिक श्रम नहीं करते। खान-पान की चीजों में भारी मिलावट है। बाजार की शक्तियां कई तरह के भ्रम फैलाती हैं। दरअसल, प्रकृति साधना की चीज है। आज इसे हमने साधन बना दिया है। साधना से दूर होते लोग शारीरिक असंतुलन के शिकार होते हैं। वास्तव में अधिकांश आधुनिक रोग काम न करने की बीमारी है। हम लोग दिमाग को थका रहे हैं, शरीर को नहीं थका रहे हैं। इसी वजह से शरीर को भुगतना पड़ रहा है। आदमी पैदल नहीं चल रहा है। स्वस्थ रहने के लिये जरूरी है हम आहार सही ढंग से लें। दरअसल हमारा आहार दवा है। किचन में खानपान की वस्तुओं के औषधीय गुण हमारे खाने को संतुलित बनाते हैं और मौसमी रोग से उपचार करते हैं। रसोई में हल्दी, लौंग, जीरा, काली मिर्च आदि आयुर्वेदिक उपचार में सहायक होती हैं। दरअसल, भागमभाग की जिंदगी में व्यक्ति मेहनत करता नहीं, उठने का समय ठीक नहीं। खाने का टाइम निश्चित नहीं है। देर रात भोजन करना शरीर के साथ अत्याचार करने जैसा है। दरअसल, दवा का उपयोग कम से कम किया जाना चाहिए।