फिजूलखर्ची पर फटकार
यह विडंबना ही है कि जनता के हितों की दुहाई देकर सत्ता में आने पर राजनीतिक दलों की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। वे दावे तो आसमान से तारे तोड़ लाने के करते हैं लेकिन जमीनी हकीकत निराशाजनक ही होती है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि थोड़े से काम को इस तरह प्रचारित किया जाता है जैसे धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। जबकि हकीकत में जनता के करों से अर्जित धन को निर्ममता से प्रचार-प्रसार में उड़ाया जाता है। विकास की प्राथमिकताओं को नजरअंदाज करके सरकारी धन को विज्ञापनों व फिजूलखर्ची में उड़ाने वाली दिल्ली सरकार की कारगुजारियों पर शीर्ष अदालत की फटकार को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। अदालत ने सख्त लहजे में कहा भी कि ऐसा क्यों है कि लोगों को मूलभूत सुविधाओं के विस्तार के लिये सरकार के पास पैसा नहीं है? तो फिर विज्ञापनों पर अनाप-शनाप खर्च होने वाला धन कहां से आ रहा है? दरअसल, दिल्ली सरकार ने शीर्ष अदालत के निर्देश के बावजूद रैपिड रेल परियोजना के लिये आर्थिक योगदान देने में वित्तीय संकट का रोना रोया था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जनहित की योजनाओं में योगदान करने से कतराने वाली सरकार विज्ञापनों तथा अन्य गैर जरूरी काम के लिये धन कहां से ला रही है? यही वजह है कि दिल्ली सरकार की नीयत को भांपते हुए शीर्ष अदालत ने विज्ञापनों पर खर्च किये गये उस धन का विवरण मांगा है जो पिछले तीन वित्तीय वर्षों में व्यय किया गया। जानकार सूत्र बता रहे हैं कि जिस रैपिड रेल परियोजना में दिल्ली सरकार ने योगदान देने से मना किया था वह दिल्ली को राजस्थान व हरियाणा से जोड़ सकती है। जिससे सड़कों पर ट्रैफिक के दबाव को कम करने में मदद मिल सकती थी। विडंबना यह है कि सूचना अधिकार कानून के तहत हासिल जानकारी बता रही है कि पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली सरकार द्वारा विज्ञापनों पर किया खर्च पांच सौ करोड़ रुपये के करीब हो गया है। निश्चय ही यह लोकतंत्र में जनधन के दुरुपयोग की पराकाष्ठा है। शर्मनाक ढंग से गैर उत्पादक कार्यों में अंधाधुंध पैसा लुटाया जा रहा है।
ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जनता को सब्जबाग दिखाकर व मुफ्त का प्रलोभन देकर सत्ता में आये राजनीतिक दलों का वास्तविक चरित्र क्या है? ऐसे दलों की कथनी और करनी की वास्तविकता क्या है? अंधाधुंध विज्ञापनों पर खर्च करके राजनीतिक दल क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या यह प्रचार की भूख है या अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने का असफल प्रयास? दिल्ली की जनता की याददाश्त इतनी कमजोर भी नहीं कि उसे याद न हो कि दिल्ली में वोट मांगते समय आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने सरकारों की फिजूलखर्ची और राजनीतिक दलों के थोथे प्रचार पर जनधन खर्च करने पर सवाल उठाये थे। जनता ने आप के दावों पर भरोसा भी किया और अपार जनसमर्थन भी दिया। मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे। दरअसल जब से आम आदमी पार्टी खुद सत्ता में आई तो राज्य सरकार की रीतियां-नीतियां पुरानी सरकारों के ढर्रे पर चल निकली हैं। निस्संदेह यह स्थिति देश के राजनेताओं के कथनी-करनी के अंतर को भी दर्शाती है। वहीं इस प्रकरण से जनता की उस धारणा को भी बल मिला है कि सत्ता में आने के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों का चरित्र एक जैसा ही हो जाता है। यदि पिछले कुछ समय में चुनावों के दौरान मतदान के प्रतिशत में गिरावट दर्ज की गई है तो उसका एक बड़ा कारण राजनेताओं की कथनी-करनी का अंतर भी है। कमोबेश पूरे देश में ही जनता में सरकारों के प्रति मोहभंग जैसी स्थिति है। लोग अब राजनेताओं की सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं। इस दिशा में शीर्ष अदालत की सचेतक भूमिका की सराहना की जानी चाहिए। निस्संदेह, इससे जनधन के दुरुपयोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने में मदद मिल सकेगी। अब देखना होगा कि दिल्ली की आम आदमी सरकार शीर्ष अदालत के सामने क्या बयां करती है।