महासमर के सैनानियों का स्मरण
ज्ञानचंद शर्मा
अंग्रेज़ी शासन की जकड़न ज्यों-ज्यों मज़बूत हो रही थी त्यों-त्यों उसके विरुद्ध जनाक्रोश का लावा सुलगने लगा था। अनेक छोटे-बड़े संघर्षों के पश्चात इसका महाविस्फोट सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम रूप में हुआ। इसके बारे में कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियां हैं : ‘खोई हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी, चमक उठी सन् सत्तावन में जो तलवार पुरानी थी।’
इसकी परिणति 90 बरस बाद सन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के रूप में हुई। इस दौरान आज़ादी के दीवानों ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अनेक प्रकार की क़ुर्बानियां दीं। उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की लाठी-गोली का आगे बढ़कर सामना किया, जेलें काटीं, काला पानी की यातनाएं झेलीं, फांसी के फंदे को गले से लगाया तब जाकर कहीं पराधीनता की शृंखलाओं से हमें मुक्ति मिली।
यह कहना कि आज़ादी बिना रक्त की एक बूंद बहाए प्राप्त हुई है, निरा दंभ है। उन ज्ञात-अल्पज्ञात और अज्ञात सब स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति हम श्रद्धानत हैं। नमन है जिनकी आहुतियों से स्वतंत्रता प्राप्ति का हमारा यह यज्ञ सम्पूर्ण हुआ। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले कतिपय क्रांतिकारी बलिदानियों की भूमिका का समुचित वर्णन डॉ. हरीश चंद्र झण्डई की पूर्व प्रकाशित दो रचनाओं में मिलता है।
इस शृंखला में उनकी तीसरी रचना ‘महासमर की सहस्त्रधारा’ में उन विभूतियों का स्मरण है जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से स्वतंत्रता के हवनकुंड में जनजागरण की आहुति डाली। इस रचना में ऐसे अठाईस महानुभावों का जीवन-वृत्त है और उनकी देश की आज़ादी को लेकर धारणाओं का उल्लेख है।
लेखक की अपनी बात कहने की एक अलग शैली है। वह अपने गद्य को पद्य के रूप में प्रस्तुत करता है, जो गद्य रहा नहीं पद्य बन न सका। इसे लेखकीय स्वतंत्रता का नाम दिया जा सकता है। तो भी रचना अपने उद्देश्य में सफल मानी जा सकती है ।
पुस्तक : महासमर की सहस्त्रधारा लेखक ः डॉ. हरीश चंद्र झन्डई प्रकाशक ः बोधि प्रकाशन जयपुर पृष्ठ : 116 मूल्य ः रु. 250.