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जीवन संवारने का माध्यम ही बना रहे धर्म

07:51 AM Jan 17, 2024 IST

विश्वनाथ सचदेव
अब राहुल गांधी पूर्व से पश्चिम की यात्रा पर हैं। उनकी पिछली यात्रा ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के नाम से हुई थी। उस यात्रा के परिणामस्वरूप भारत कितना जुड़ा इसका कोई आकलन अभी हुआ नहीं है। हां, इस यात्रा से राहुल गांधी की छवि अवश्य कुछ सुधरी है। हो सकता है अब पूरब-पश्चिम वाली ‘भारत जोड़ो न्याय-यात्रा’ से उनकी छवि कुछ और सुधरे। अभी तो शुरुआत है, आगे-आगे देखिए होता है क्या। लेकिन इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि इस दूसरी यात्रा का कदम आगे बढ़ाने में कांग्रेस से कुछ देरी अवश्य हो गयी है। पिछली यात्रा वाला जोश और उसे तब मिला प्रतिसाद अब दिखेगा या नहीं पता नहीं।
इस तरह की यात्राओं को नाम कुछ भी दिया जाये, उनके राजनीतिक उद्देश्य को नकारा नहीं जा सकता। लगभग तीन दशक पहले लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने एक रथ-यात्रा प्रारंभ की थी। उस यात्रा का घोषित उद्देश्य अयोध्या में ‘भव्य-दिव्य राममंदिर’ की स्थापना कहा गया था। आज वह मंदिर बन चुका है। लेकिन क्या यही उद्देश्य था उस यात्रा का? इन तीन दशकों में देश की राजनीति में भाजपा का जो स्थान बना है, उसमें लालकृष्ण आडवाणी की रथ-यात्रा के योगदान को नकारना देश की राजनीति और देश के ‘मूड’ को न समझना ही होगा। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि तब अयोध्या के राम-मंदिर को राजनीति से जोड़ने की बात भाजपा के नेतृत्व ने छिपाने की कोशिश भी नहीं की थी। अयोध्या में भव्य राम मंदिर की स्थापना इस देश की आस्था से जुड़ी है। देश की अस्सी प्रतिशत आबादी के आराध्य हैं श्रीराम। राम मंदिर का निर्माण इस आबादी के विश्वासों-निष्ठाओं की एक अभिव्यक्ति भी है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अयोध्या में आज जो कुछ हो रहा है, उसका राजनीतिक लाभ भी संबंधित पक्षों को मिलेगा। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस इस बात को समझती नहीं थी, पर उसे समझकर आवश्यक कदम उठाने में वह विफल हो गयी है। बेहतर होता कांग्रेस राम मंदिर के न्यासियों का निमंत्रण स्वीकार करती, समारोह में जाती और साथ ही इस मामले के राजनीतीकरण का विरोध भी करती। इस राजनीतीकरण की आलोचना वह अवश्य कर रही है, पर इसका राजनीतिक लाभ उठाने वालों के इरादों को पूरा न होने देने के लिए जिस राजनीतिक चतुराई की आवश्यकता अपेक्षित है, देश की सबसे पुरानी पार्टी में इसका अभाव स्पष्ट दिख रहा है। राहुल गांधी की पूर्व-पश्चिम वाली यात्रा में विलंब और जोश में कमी भी इस अभाव को प्रदर्शित करती है।
हमने अपने संविधान में पंथ-निरपेक्षता को एक आदर्श के रूप में स्वीकारा है। इसका अर्थ अधार्मिक होना नहीं, सब धर्मों को समान सम्मान देना है। एक तरफ धर्म-निरपेक्षता हमारा आदर्श है तो दूसरी और सर्वधर्म समभाव भी। हमारा राष्ट्रपति, हमारा प्रधानमंत्री, हमारे राजनेता, हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध आदि धर्मों में विश्वास करने वाले हो सकते हैं, पर हमारे शासन का कोई धर्म नहीं है, शासन की दृष्टि में सब धर्म समान हैं। समान होने चाहिए। धर्म को राजनीति का हथियार बनाने का मतलब सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना है, और सांप्रदायिकता हमारी मनुष्यता को भी चुनौती है।
अयोध्या में भगवान राम के भव्य-दिव्य मंदिर के निर्माण का देश की जनता ने स्वागत ही किया है। इस संदर्भ में कुछ मुद्दों पर मतभेद हो सकते हैं, पर आज जो वातावरण देश में बना है वह सकारात्मक ही दिख रहा है। ज़रूरी है कि सकारात्मकता को बनाये रखा जाये। धर्म की राजनीति करने वालों को इस बात को समझना होगा कि सारे मतभेदों के बावजूद अयोध्या में रहने वाले मुसलमान मंदिर के निर्माण कार्य से भी जुड़े रहे हैं और मंदिरों के लिए आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था में भी योगदान देते रहे हैं। इस बात को नहीं भुलाया जाना चाहिए पूजा के फूल हो या मूर्तियों को पहनाये जाने वाले वस्त्र, इनका माध्यम भी मुख्यत: वहां के मुसलमान ही रहे हैं। यही नहीं देश में अनेक स्थानों पर मंदिर निर्माण के लिए एकत्र किए जाने वाले कोष में भी मुसलमानों ने योगदान दिया है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कितना दिया गया, महत्वपूर्ण यह है कि योगदान किया गया। आपसी सहयोग की यह भावना बनी रहे इसके लिए ज़रूरी है कि अब मंदिर-निर्माण का राजनीतिक लाभ उठाने की कोई कोशिश न हो। धर्म के नाम पर देश के मतदाताओं को बांटा न जाये।
यह बात कहना आसान है और ऐसी अपेक्षा करना भी ग़लत नहीं है। पर हकीकत यह भी है कि आज हमारी राजनीति में ऐसे तत्व हैं जिनके लिए धर्म आस्था का नहीं, वोट जुटाने का माध्यम है। इन तत्वों से सावधान रहने की आवश्यकता है, और इन्हें असफल बनाने की ईमानदारी कोशिश करने की भी। धर्म हमारे सोच, हमारे जीवन को संबल देने के लिए है, राजनीतिक नफे-नुकसान का हिसाब-किताब करने के लिए नहीं। शायद इसी संदर्भ में यह कहा गया था कि देश के प्रधानमंत्री मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा जैसे आयोजन से न जुड़ें तो बेहतर रहता। इस संदर्भ में एक और सुझाव भी आया है। अयोध्या में मस्जिद-निर्माण से जुड़े कुछ लोगों का प्रस्ताव है कि देश के प्रधानमंत्री यदि मस्जिद के शिलान्यास-कार्य से भी जुड़ें तो इसके दूरगामी संकेत होंगे- स्वागत योग्य संकेत।
यदि ऐसा होता तो यह राष्ट्र की एकता और समाज में स्वस्थ और सकारात्मक वातावरण के लिए एक ठोस कार्य सिद्ध हो सकता है।
सिर्फ भारत-जोड़ो कहने से बात नहीं बनेगी, भारत की एकता को मज़बूत बनाने और बनाये रखने के लिए राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र-हित के बारे में सोचना होगा। बात चाहे राहुल गांधी की यात्रा की हो या फिर प्रधानमंत्री के जगह-जगह जाकर राष्ट्र की एकता की दुहाई देने की, ज़रूरी यह है कि हमारी राजनीति अपने स्वार्थ के लिए धर्म की बैसाखी की मोहताज न हो। सच तो यह है कि धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश ही अपने आप में ग़लत है। धर्म जीवन को संवारने का माध्यम है इसे सत्ता की राजनीति से जोड़ना अपने आप में एक पाप है, एक अपराध है। रुकनी चाहिए यह प्रक्रिया। अपराध की सज़ा मिलनी चाहिए और पाप का प्रायश्चित होना चाहिए। अपनी-अपनी आस्था के नाम पर राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि का समर्थन नहीं किया जा सकता। नहीं किया जाना चाहिए।
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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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