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कानून से कार्य अवधि का नियमन जरूरी

06:42 AM Oct 15, 2024 IST
कानून से कार्य अवधि का नियमन जरूरी
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डॉ. शशांक द्विवेदी

पिछले दिनों लखनऊ में एचडीएफसी बैंक में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी 45 वर्षीय सदफ फातिमा की कथित रूप से वर्क प्रेशर के चलते जान चली गई। इसके पहले पुणे में ‘अर्न्स्ट एंड यंग’ में काम करने वाली एक युवा सीए 26 साल की ऐना सेबेस्टियन पेरायिल की वर्क प्रेशर के चलते मौत हो गई थी। इन दोनों ही घटनाओं ने वर्किंग ऑवर और वर्क लाइफ बैलेंस को लेकर बहस छेड़ दी है।
ऐना और फातिमा की मौत के बाद देश में वर्क प्रेशर को लेकर बहस और चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। राजनीतिक दलों और बड़े डॉक्टरों ने भी सरकार को चेताया है। डॉक्टरों की मानें तो भारत में ओवरवर्क का ट्रेंड बेहद कॉमन है। हाल के दिनों में ऑफिस और फैक्टरियों के कर्मचारियों पर काम के दबाव के कारण मौत के कई मामले सामने आए हैं। रिसर्च में खुलासा हुआ है कि ज्यादातर युवाओं की मौतें वर्क लोड की वजह से हुई हैं। इसे डॉक्टर ऑक्यूपेशनल डेथ कहते हैं। ये मौतें काम करते-करते हुई हैं। इनको वर्क रिलेटेड डेथ ट्रीट किया जाना चाहिए, इनको मुआवजा मिलना चाहिए। भारत विकसित देश की ओर अग्रसर है, ऐसे में कंपनियों और फैक्टरियों में इस तरह की घटनाएं और बढ़ेंगी। भारत सरकार को इसके लिए तुरंत ही कानून लाना चाहिए।
वर्ष 1969 में जापान में इस तरह की पहली मौत हुई थी। एक 29 साल का लड़का न्यूज पेपर के शिपिंग डिपार्टमेंट में काम करते-करते मर गया था। लड़के के मरने के बाद उसकी पत्नी ने कंपनी से मुआवजा मांगा। कंपनी ने मुआवजा नहीं दिया तो इसको लेकर एसोसिएशन बनी। धीरे-धीरे कई और लोग भी सामने आए, इसके बाद यह मांग पश्चिम के देशों में भी उठने लगी। इसके बाद एक ‘डेथ ड्यू टू ओवर वर्क एसोसिएशन’ बनी। डब्ल्यूएचओ ने भी माना कि लांग वर्किंग ऑवर्स की वजह से दुनिया में 60 लाख से ज्यादा लोग हर साल मरते हैं। यहां तक कि डेथ ड्यू टू ओवर वर्क में कोई शख्स सुसाइड करता है तो भी उसके परिवार वालों को अब जापान में मुआवजा मिलता है।
साल 2014 में, जापान की सरकार एक एक्ट लेकर आई, जिसे करोशी एक्ट कहते हैं। इस एक्ट के तहत वर्क रिलेटेड डेथ ऑक्यूपेशनल डेथ को लेकर कई सारी गाइडलाइंस हैं, जिसे वहां की कंपनियां फॉलो करती हैं। जैसे साल 2018 के बाद जापान ने ओवरटाइम घंटों को सीमित कर दिया। एक वर्कर महीने में 45 घंटे से ज्यादा और साल में 360 घंटे तक ही ओवरटाइम कर सकता है।
वैसे तो भारत में वर्किंग ऑवर 8 से 9 घंटे का होता है। इस तरह लोग हर हफ्ते 45 से 48 घंटे काम करते हैं। हालांकि, कुछ कंपनियों में वर्किंग ऑवर के बाद भी काम करना पड़ता है। इसकी वजह से न सिर्फ उनकी शारीरिक स्थिति पर असर पड़ता है, बल्कि काम के दबाव के चलते मानसिक तौर पर भी कर्मचारी कमजोर हो जाता है। हालांकि, दुनिया के कुछ ऐसे भी मुल्क हैं, जहां वर्क लाइफ बैलेंस काफी ज्यादा अच्छा है। वहां लोग हफ्ते में 30 घंटे या उससे भी कम काम करते हैं।
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रशांत महासागर में स्थित वनातू नाम के देश में सबसे कम घंटे तक लोग काम करते हैं। यहां एक कर्मचारी हर हफ्ते सिर्फ 24.7 घंटे काम करता है। वनातू की सिर्फ 4 फीसदी आबादी ही हफ्ते में 49 घंटे या उससे ज्यादा काम करती है।
प्रशांत महासागर में ही किरिबाती का एक कर्मचारी हर हफ्ते औसतन 27.3 घंटे काम करता है। हैरानी की बात यह है कि भारत सबसे कम वर्किंग ऑवर वाले देशों में टॉप 20 में भी शामिल नहीं है। यहां की 51 फीसदी वर्कफोर्स हर हफ्ते 49 घंटे या उससे ज्यादा काम करती है। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा घंटों तक काम करने वाले मुल्कों में दूसरे स्थान पर है।
पिछले साल देश की उत्पादकता बढ़ाने के लिए सप्ताह में 70 घंटे काम करने का सुझाव देने को लेकर इन्फ़ोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति की काफ़ी आलोचना हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार, काम से जुड़ी समस्याओं से भारतीयों में आत्महत्या की दर, दो दशकों में 2.4 गुना बढ़ी है। डब्ल्यूएचओ और आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार, लम्बे समय तक काम करने से हृदय रोग और स्ट्रोक से होने वाली मौतें बढ़ रही हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार अगर काम को लेकर बाउंडरी बनाकर नहीं रखेंगे, तो इससे मेंटल हेल्थ पर भी बुरा असर पड़ सकता है। इसलिए पर्सनल लाइफ और वर्क लाइफ के बीच बाउंडरी बनाकर रखें। काम के वक्त पर्सनल-लाइफ से दूरी और फैमिली टाइम के वक्त वर्क-लाइफ से दूरी बनाए रखना बहुत जरूरी है।
सरकार, कामकाजी वर्ग के लिए सेफ्टी नॉर्म्स और मनोवैज्ञानिक मुद्दों पर संतोषजनक कदम नहीं उठा रही है। सवाल यह उठता है कि क्या भारत भी जापान की तरह ‘करोशी एक्ट’ लागू करेगा, ताकि वर्क रिलेटेड डेथ जैसे ब्रेन हेमरेज, हार्ट अटैक, इम्यूनिटी में कमी और नींद की समस्याओं को रोका जा सके। मुद्दे पर सामुदायिक स्तर पर पहल करने की आवश्यकता है।

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लेखक समाज विज्ञानी हैं।

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